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प्रज्ञा और षट्खण्डागम] सामान्य पूर्वधर-काल : देवदि क्षमाश्रमण .७१३
सो सिद्धतेरण गुरू, जुत्ती-सत्येहि जस्स हरिभद्दो । बहु-सत्थ-गंथ-वित्थर-पत्थारिय-पयड-सव्वत्थो ।।
[कुवलयमाला प्रशस्ति] " इस प्रकार उद्योतनसूरि ने कुवलयमाला में हरिभद्र सूरि को अनेक ग्रन्थों की रचना द्वारा समस्त श्रुतशास्त्र का सच्चा अर्थ प्रकट करने वाले तथा स्वयं को प्रमाण और न्यायशास्त्र के सिखाने वाले गुरू के रूप में स्मरण किया है।
'कुवलय मालाकार' उद्योतन सूरि, अपर नाम दाक्षिण्यचिन्ह ने अपने इस ग्रन्थरत्न के अन्त में इसके समापन के समय का उल्लेख इस प्रकार किया है:
..........."अह चोहसीए चित्तस्स, किण्हपक्खम्मि । निम्मविया बोहकरी, भव्वाणं होउ सव्वाणं ।।
सगकाले वोलीणे, वरिसारण सएहिं सत्तहिं गएहिं । एग दिणे णूणेहिं, एस समत्ता वरण्हम्मि ।।
अर्थात् -शक संवत् ७०० की समाप्ति से एक दिन पूर्व शुभ बेला में इस (कुवलयमाला) की रचना सम्पूर्ण की। चैत्र कृष्णा चतुर्दशी के दिन पूर्ण की गई यह (कुवलयमाला) सभी भव्यजनों के लिये बोधप्रद हो।
'कुवलयमाला' जैसे अद्भुत एवं उच्चकोटि के ग्रन्थ का प्रणयन करने योग्य पाण्डित्य प्राप्त करने में उद्योतन सूरि को कम से कम २५-३० वर्ष का समय अवश्य लगा होगा। यह एक निर्विवाद सत्य है कि पाण्डित्य का प्रवेश द्वार प्रमाण और न्यायशास्त्र का अध्ययन माना गया है। उद्योतन सूरि को दीक्षित करने के अनन्तर उनके गुरू तत्तायरिय ने उनकी सुतीक्ष्णबुद्धि और विलक्षण प्रतिभा देख कर उन्हें उस युग के लिये परमावश्यक प्रमाण और न्यायशास्त्र की शिक्षा दिलाने हेतु हरिभद्र सूरी की सेवा में रखा। उस समय तक हरिभद्र सूरि के प्रखर पाण्डित्य की कीर्तिपताका दिग्दिगन्त में फहरा रही होगी, यही प्रमुख कारण हो सकता है कि तत्तायरिय ने हरिभद्र सूरि को अपने मेधावी शिष्य के शिक्षक के रूप में चुना।
इससे यह अनुमान किया जाता है कि शक सं० ६७० के आसपास उद्योतन सूरि न्याय शास्त्र की शिक्षा प्राप्त करने हेतु हरिभद्र सूरि की सेवा में उपस्थित हुए होंगे। यह भी अनुमान किया जा सकता है कि हरिभद्र को शक सं०६७० तक इस प्रकार की सर्वतो व्यापिनी प्रसिद्धि कम से कम ३० वर्ष की अनवरत साहित्य सेवा एवं अपूर्व जिन शासन सेवा के पश्चात् ही प्राप्त हुई होगी। इस प्रकार सम्भवतः हरिभद्र सूरि ने शक सं० ६४० के आस-पास साहित्य-सृजन का कार्य प्रारम्भ किया होगा एवं उस समय उनकी अनुमानित वय ४० के लगभग और जन्मकाल शक सं० ६०० होना चाहिए । हरिभद्र सूरि ने उपलब्ध सूची के अनुसार
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