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प्रज्ञा० अौर षट्खण्डागम] सामान्य पूर्वपर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण धरसेन अग्रायणीय पूर्व की पंचम वस्तु के अन्तर्गत चतुर्थ महाकर्मप्राभृत के ज्ञाता थे। अपने जीवन के संध्याकाल में धरसेन को चिन्ता हुई कि कहीं उनके निधन के साथ ही "महाकर्म प्रामत" विलुप्त न हो जाय। उन्होंने महामहिमा नगरी में एकत्रित श्रमण-समूह की सेवा में एक पत्र भेज कर दो मेधावी मुनियों को अपने पास भेजने की प्रार्थना की, जिन्हें वे चतुर्थ महाकर्म प्राभूत का ज्ञान देकर उसे नष्ट होने से बचावें । वेगातट पर सम्मिलित श्रमणों ने' धरसेन के निर्देशानुसार श्रमण-समूह में से दो मेधावी मुनियों को चुन कर उनके पास भेजा । अच्छी तरह परीक्षण के पश्चात् प्राचार्य धरसेन ने उन दोनों मेधावी मुनियों को चतुर्थ महाकर्मप्राभूत के ज्ञान के लिये सुयोग्य पात्र समझ कर शिक्षा देना प्रारम्भ किया। परमं निष्ठा, परिश्रम और विनय-पूर्वक अध्ययन करते हुए उन दोनों मुनियों ने उस सम्पूर्ण ग्रन्थ का अध्ययन समुचित समय में सम्पन्न किया । सुरों ने बड़े उत्सव के साथ उन दोनों मुनियों में से एक का नाम पुष्पदन्त और दूसरे का भूतपति (भूतबलि) रखा। अध्ययन की समाप्ति के दूसरे दिन ही धरसेन ने अपना अंन्त समय सन्निकट समझ कर उन दोनों मुनियों को हितकर निर्देश देकर अपने यहाँ से करीश्वर नामक स्थान के लिये विदा किया। हदिनों में वे दोनों कूरीश्वर पत्तन पहुंचे। वहाँ वर्षावास बिताने के पश्चात् दक्षिण की ओर विहार कर वे कर. हाट पहुंचे। वहां पुष्पदन्त मुनि के भानजे जिनपालित ने अपने मातुल मुनि के सान्निध्य में निर्ग्रन्थ श्रमरण-धर्म की दीक्षा ग्रहण की। तदनन्तर पुष्पदन्त ने जिनपालित के साथ वनवास में और भूतबलि द्रविड़ देश के मधुरा नामक नगर में रहने लगे। पुष्पदन्त प्राचार्य ने गुण, जीव आदि बीस प्ररूपणा गर्भित सत्प्ररूपणा के सूत्र बना उन्हें जिनपालित को पढ़ाकर उसे भूतबलि के पास भेजा। जिनपालित के मुख से सत्प्ररूपणा को सुनकर भूतबलि ने समझ लिया कि अब । पुष्पदन्त की माय स्वल्प ही अवशिष्ट रही है और उनकी यह प्रान्तरिक अभिलाषा है कि षट्खण्डागम की रचना की जाय । तदनुसार भूतबलि ने षट्खण्डागम की रचना की।
पन्नवणा सूत्र और षट्खण्डागम - इन दोनों ही पागमों के मूल पाठ में कहीं इस प्रकार का कोई उल्लेख नहीं है, जिससे इनके रचयितामों का नाम ज्ञात हो सके । इन दोनों रचनामों के रचनाकारों का नामोल्लेख दूसरे विद्वानों द्वारा किया गया है । मन्तर केवल इतना है कि जहां पन्नवरणासूत्र के प्रणेता का दिगम्बर परम्परा में यह मान्यता प्रचलित है कि महंबली ने उन दोनों मुनियों को धरसेन के पास भेजा । पर इस मान्यता का कोईः प्रामाणिक भाषार दिगम्बर परम्परा के सम्पूर्ण वाङ्मय में खोजने पर भी नहीं मिलता। हरिवंशपुराण और श्रुतावतार के अनुसार महबलि का स्वर्गवास वीर नि. सं. ७८३ अथवा ७६१ में अनुमानित किया जाता है। इनके पश्चात् माघनन्दी २१ वर्ष तक प्राचार्य पद पर रहे तदनुसार वी. नि.
सं०८०४ प्रयवा १२ के पश्चात् का धरसेन का समय हो सकता है। -सम्पादक १ पट्खडागम (पु. १, पृ. ७२) में - "भूतबलि भहारमो वि दमिल विसयं गदो।" इस प्रकारका उल्लेख है।
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