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पूर्वधर काल सं० दिग. मा.] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण
७०५ वेदवेदक पद और वेदनापद ये ६ नाम उल्लिखित हैं। षटखण्डागम के टीकाकार ने षटखण्डागम के ६ खण्डों के क्रमश: जीवस्थान, क्षुद्रकबन्ध, बन्धस्वामित्व, वेदना, वर्गणा और महावन्ध -ये ६ नाम दिये हैं। वस्तुतः ये तुलना करने योग्य हैं। प्रज्ञापना में उपर्युक्त पदों के अन्तर्गत जिन तथ्यों की चर्चा की गई है, उन्हीं की चर्चा पट्खण्डागम के तत्समान नाम वाले खण्डों में भी की गई है। .
(१३) ग्राहारक एवं अनाहारक जीवों का वर्गीकरण करते हए इन दोनों प्रागमों में सयोगिकेवली द्वारा प्रहार ग्रहण किये जाने तथा अयोगिकेवली एवं समुद्घातगत सयोगिकेवली द्वारा ग्राहार ग्रहण न किये जाने का समान रूप में उल्लेख किया गया है, जो इस प्रकार है:
पण्प्रवरणा सूत्र- "केवलि आहारए णं" भंते ! केवलि आहारए त्ति कालतो केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं देसूण पुन्वकोडिं ।।" सूत्र १३६६ ।
___ "सजोगि भवत्थकेवलि प्रणाहारए णं भंते ! • पुक्छा। गोयमा ! अजहरणमरगुक्कोसेणं तिणि समया।" सूत्र १३७२ ।
"प्रजोगिभवत्थकेवलि अणाहारए णं • पुच्छा। गोयमा ! जहण्णण वि उक्कोसेरण वि अंतोमुहुत्तं ।" सूत्र १३७३ ।। षटखण्डागम -
"पाहाराणुवादेरण अस्थि आहारा प्रणाहारा" ॥सूत्र १७५ ।
"पाहारा एयंदिय-प्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ।।" - जीवट्ठाण संतपरूवरणा, सू० १७६ ।
अर्थात् आहारमार्गणा की दृष्टि से जीव आहारक और अनाहारक दोनों ही प्रकार के होते हैं । १७५
आहारक जीव एकेन्द्रिय से लेकर सयोगिकेवलि पर्यन्त होते हैं ॥१७६।।
"प्रणाहारा चदुसु ठाणेसु विग्गहगइ-समावण्णाणं केवलीणं वा समुग्धादगदाणं अजोगिकेवली सिद्धा चेदि ।।१७७।।
इन दोनों मूल आगमों के सूल पाठ में केवलि-भुक्ति का समान रूप से समान भावद्योतक शब्दों में प्रतिपादन किया गया है।
(१४) प्रज्ञापनासूत्र और षटखण्डागम - इन दोनों ही प्रागमों में गति नादि मार्गणास्थानों की अपेक्षा से जीवों के अल्पबहुत्व पर विचार किया गया
। प्रज्ञापनासूत्र में अल्प-बहुत्व की मार्गणामों में २६ द्वार हैं, जिनमें जीव-अजीव न दोनों का ही विचार किया गया है। षट्खण्डागम में चौदह गुरणस्थानों से "न्धित गत्यादि मार्गणास्थानों को दृष्टिगत रखते हुए जीवों के प्रल्प-बहुत्व वचार किया गया है । यद्यपि प्रज्ञापनासूत्र में अल्प-बहुत्व की मार्गणामों के
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