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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रज्ञा० और षट्खण्डागम द्वार २६ और षटखण्डागम में १४ हैं तथापि दोनों के तुलनात्मक अध्ययन से सहज ही यह प्रकट हो जाता है कि षटखण्डागम में वरिणत १४ मार्गरणाद्वार वस्तुतः प्रज्ञापना सूत्र में वरिणत २६ द्वारों में से १४ के साथ पूर्णतः मिलते-जुलते हैं, जैसा कि निम्नलिखित तालिका से स्पष्टतः प्रकट होता है :प्रज्ञापनासूत्र पटखण्डागम प्रज्ञापनासूत्र षट्खण्डागम
(पुस्तक ७, पृ० ५२०) १३. उपयोग १. दिशा
१४. आहार १४. आहारक
१५. भाषक २. गति १. गति
१६. परित ३. इन्द्रियः २. इन्द्रिय
१७. पर्याप्त ४. काय ३. काय.
१८. सूक्ष्म ५. योग ४. योग ।
१६. संजी १३. संज्ञी ६. वेद ५. वेद
२०. भव ११. भव्य ७. कषाय ६. कषाय । २१. अस्तिकाय ८. लेश्या १०. लेश्या
२२. चरिम ६. सम्यक्त व १२. सम्यक्त व २३. जीव १०. ज्ञान ७. ज्ञान
२४. क्षेत्र ११. दर्शन ६. दर्शन २५. बंध १२. संयत ८. संयम
२६. पुद्गल' १५ जिस प्रकार पन्नवणासूत्र के बहुवक्तव्यता नामक तीसरे पद में गति आदि मार्गणास्थानों की अपेक्षा से २६ द्वारों द्वारा जीवों के अल्प-बहुत्व पर विचार करने के पश्चात् इस प्रकरण के अन्त में - "अह भंते ! सन्यजीवप्पबहं महादंडयं वत्तइस्सामि" - इस वाक्य द्वारा महादण्डक प्रस्तुत किया गया है, ठीक उसी प्रकार षटखण्डागम में भी १४ गुण स्थानों में गति आदि १४ मार्गरणास्थानों द्वारा जीवों के अल्पबहत्व पर विचार करने के पश्चात् इस प्रकरण के अन्त में महादण्डकों का उल्लेख किया गया है ।
प्रज्ञापनासूत्र में जीव को केन्द्र मान कर जीवप्रधान निरूपण किया गया है। षट्खण्डागम में प्रद्यपि कर्म को केन्द्र बना कर कर्मप्रधान निरूपण किया गया है. तथापि "खुद्दाबंध" नामक द्वितीय खण्ड में बन्धक - जीव का विचार १४ मार्गणा-: ' सूत्र २१२ दिसि गति इंदिय काए जोगे वेदे कसाय लेस्सा य । सम्मत्त गाण दंसरण संजय उवयोग प्राहारे ॥१८० गाथा।। भासग परित्त पज्जत्त सुहम सण्णी भवस्थिए चरिमे। जीवे य खेत. बंधे पोग्गल महदंडए चेव ॥१८१ गाथा।।.
[पन्नवणासुत्त, तइयं बहुवत्तव्वपयं, सूत्र २१२] २ षट्खण्डागम, पुस्तक ७, पृ. ७४५ ।
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