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जैन धर्म का मौलिक इतिहास- द्वितीय भाग [ पूर्वघर काल सं० दिग. मा.
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पट्खण्डागम, पुस्तक १४, सूत्र १२२ से १२५ :साहारणमाहारो, साहारणमारणपारणगहणं च । साहाररणजीवाणं, साहाररणलक्खरणं भणिदं ॥। ' एयस्स भरगुग्णहरणं, बहूरण साहारणारणमेयस्स । एयस्स जं बहूणं, समासदो तं पि होदि एयस्स ॥ समगं वक्कंताणं, समगं तेसि सरीरणिप्पत्ती । समगं न अरगुग्गहणं, समगं उस्सासरिणस्सासो |
उपर्युक्त तीन गाथाम्रों का षट्खण्डागम में जो पाठ दिया गया है.. अपेक्षा पनवरणासूत्रान्तर्गत पाठ अधिक व्यवस्थित भौर विशुद्ध है ।
(७) पनवरणा सूत्र में ऐसी अनेक गाथाएं हैं जो षट्खण्डागम में भी हैं । इसके अतिरिक्त षट्खण्डागम, पुस्तक सं० १३ के गाथा सूत्र ४ से ६, १२, १३, १५ प्रौर १६ प्रावश्यक नियुक्ति (गाथा सं० ३१ से ) तथा विशेषावश्यक भाष्य ( गा० ६०४ से) की गाथाओं से मिलती-जुलती हैं ।
उसकी
(5) इन दोनों में अल्प- बहुत्व प्रायः समान रूप से वर्णित हैं और उन्हें महादण्डक के नाम से अभिहित किया गया है ।
(E) प्रज्ञापनासूत्र (सूत्र १४४४ से ६५ ) और षट्खण्डागम ( पुस्तक ६, सूत्र ११६, २२० प्रादि), इन दोनों के गत्यागत्यादि प्रकरण में तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, तथा वासुदेव के पदों की प्राप्ति के उल्लेख की समानता तो वस्तुतः प्राश्चर्यजनक है ।
(१०) इन दोनों में प्रवगाहना, अन्तर प्रादि भनेक विषयों का समान रूप से प्रतिपादन किया गया है।
(११) जीवों के अल्प-बहुत्व विषयक विचार के प्रसंग में प्रज्ञापनासूत्र मौर षट्ण्डागम के अधोलिखित पाठों की प्रतिपादनशैली प्रादि की समानता भी वस्तुतः विचारणीय है :
"ग्रह भंते ! सव्वजीवष्पबहुं महादंडयं वत्तइस्सामि सम्बत्यो वा गग्भवक्कंतिया मरगुस्सा "सजोगी विसेसाहिया ९६, संसारत्या बिसेसाहिया ९७, सव्व जीवा विसेसाहिया १८ ||" - पन्नवरणा, सूत्र ३३४ ।
"एतो सव्वजीवेसु महादंडयो कादव्बो भवदि । सम्बत्यो वा मरणुस्सपज्जता गग्मोवक्कतिया .....रिणगोदजीवा विसेसाहिया || - षट्खण्डागम, पु० ७,
सूत्र १-६६ ।
(१२) प्रज्ञापनासूत्र में इसके ३६ पदों में से २३ वें से २७ वें धौर ३५ वें पद के क्रमशः कर्मप्रकृतिपद, कर्मबन्ध पद, कर्मबन्धवेद पद, कर्मवेदबन्ध पद, कर्म
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- इस सूत्र सं० १२१ के पाठ से अनुमान किया जाता
तत्थ इमं साहारण लक्खरणं भणिदं । है कि ये गाथाएं कहीं से उड़त हैं।
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