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७०२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [पूर्वधर काल सं० दिग. मा. तत्वों का निरूपण प्रादि दोनों परम्परागों में पर्याप्तरूपेण समान ही मिलेगा। यही नहीं, दिगम्बर परम्परा में षट्खण्डागम और कषायपाहुड़ जैसे एकादशांगी के सर्वाधिक सन्निकट समझे जाने वाले प्रागमिक ग्रन्थों की क्रमशः धवला और जयधवला टीका में श्वेताम्बर परम्परा के प्राचारांगादि प्रागमों के उद्धरण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं। विवेच्य वस्तुविषय की साम्यता के साथ-साथ दिगम्बर परम्परा के अनेक ग्रन्थों में अधिकांशतः ऐसी गाथाएं उपलब्ध होती हैं जो श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य प्रांगमों, नियुक्तियों, भाष्यों आदि की गाथानों से अक्षरशः मिलती-जुलती हैं। वस्तुतः दोनों परम्परामों के कतिपय मागम ग्रन्थों का तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन करते समय ऐसा अनुभव होता है, मानो एक ही सुधासागर के अमृत को भिन्न-भिन्न पात्रों में भरकर नामभेद से रखा गया हो। दिगम्बर परम्परा के पूर्व एवं अंगज्ञान के एक देशधर प्राचार्य ने षट्खण्डागम
आदि आगमों में जो तात्विक तथा सैद्धान्तिक निरूपण किया है, यह समग्ररूपेण वही है जो श्वेताम्बर परम्परा द्वारा सम्मत एकादशांगी, अंगबाह्य मागमों, छेदसूत्रों, उपांगों, निर्यक्तियों एवं भाष्यों आदि में सूत्ररूपेण अथवा विशद रूपेण पहले से ही विद्यमान है। दोनों परम्परामों के प्रागमों में विभेद नाम की यदि कोई वस्तु है तो केवल नाम, शैली और क्रम की ही है। श्वेताम्बर परम्परा के जो अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य आगम वर्तमान काल में विद्यमान हैं, उनका नामोल्लेख तो दिगम्बर परम्परा के प्रागमों में ज्यों का त्यों विद्यमान है ही पर सार रूप में इन प्रागमों के विषय का जो परिचय दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में दिया गया है, वह भी श्वेताम्बरं परम्परा के विद्यमान आगमों के विषय से अधिकांशतः मिलता-जुलता ही है। यदि यह कह दिया जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य प्रागम-ग्रन्थों में मूलत: जिन विषयों का प्रतिपादन किया गया है, वे अर्थतः वे ही हैं जो श्वेताम्बर परम्परा के प्रागमों एवं मागम - ग्रन्थों में विशद रूपेण वरिणत हैं। उनकी टीकामों में भी उपर्युक्त ८४ मान्यताभेदों के अतिरिक्त नवीन कुछ नहीं है।
उदाहरणस्वरूप षट्खण्डागम को ही ले लिया जाय । दिगम्बर परम्परा के प्रागम-ग्रन्थ के रूप में षट्खण्डागम का सर्वोपरि स्थान है। वीर नि० सं० ३३५ से ३७६ तक १३वें वाचक (वाचनाचार्य)पद पर और १२वें युगप्रधान पद पर रहे प्रार्य श्यामाचार्य द्वारा पूर्वज्ञान से उद्धृत उपांग-"पन्नवरणा (प्रज्ञापना) सूत्र" और वीर नि० सं० ७६३ से ७६१ के बीच हुए प्राचार्य अर्हद्बलि' के पश्चाद्वर्ती प्राचार्य
' अंतिम प्राचारांगधर लोहार्य के पश्चात् हुए प्राचार्य विनयंधर में अहंद्वलि एवं महतलि से
धरसेन तक के प्राचार्यों के काल के सम्बन्ध में केवल एक अविश्वसनीय-नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली के आधार पर दिगम्बर परम्परा के कतिपय उच्चकोटि के विद्वानों ने दिगम्बर परम्परा के आगमों एवं प्राचीन ग्रन्थों से भिन्न मान्यता प्रचलित करने का प्रयास किया है, इस विषय पर इसी अध्याय में आगे प्रकाश डाला जा रहा है। -सम्पादक .
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