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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितोय भाग [पूर्वधर काल सं० दिग. मा. धारियों का समय वीर नि० सं० ६२ से १६२ तक १०० वर्ष का माना गया है। यद्यपि दोनों परम्पराएं चतुर्दश पूर्वधरों की संख्या समान रूप से ५ मानती हैं तथापि अंतिम चतुर्दश पूर्वधर भद्रवाह के अतिरिक्त शेष चारों चतुर्दश पूर्वधरों के जो नाम दोनों परम्परागों के प्रामाणिक ग्रन्थों में दिये गये हैं, वे पूर्णतः भिन्न हैं।
- इसी प्रकार दश पूर्वधरों का काल जहां श्वेताम्बर परम्परा में वीर नि० सं० १७० से ५८४ तक ४१४ वर्ष का माना गया है, वहां दिगम्बर परम्परा के सभी ग्रन्थों में इनका काल वीर नि० सं० १६२ से ३४५ तक, केवल १८३ वर्ष का ही बताया गया है। दश पूर्वधर प्राचार्यों की संख्या दोनों परम्पराओं में समान रूप से ११ मानी गई है पर इन ग्यारहों प्राचार्यों के जो नाम दोनों परम्पराओं के ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं, वे एक दूसरी परम्परा द्वारा दिये गये नामों से पूर्णतः भिन्न हैं।
दश पूर्वधरों के काल के अनन्तर श्वेताम्बर परम्परा में वीर नि० सं० ५८४ से १००० तक ४१६ वर्ष का पूर्वधर-काल माना गया है। उस ४१६ वर्ष की अवधि में १० प्राचार्यों को पूर्वज्ञान का धारक माना गया है, जिनमें प्रार्य रक्षित सार्द्धनव पूर्वो के ज्ञाता तथा देवद्धि क्षमाश्रमण एक पूर्व के अन्तिम ज्ञाता थे । मूलागम भगवतीसूत्र में वीर नि० सं० १००० तक पूर्वज्ञान के विद्यमान रहने का उल्लेख होने के कारण श्वेताम्बर परम्परा द्वारा अपनी इस मान्यता को निर्विवादरूपेण पूर्णत: प्रामाणिक माना जाता है।
इस प्रकार जहां श्वेताम्बर परम्परा की यह मान्यता है कि वीर नि० सं० १००० के पश्चात् पूर्वज्ञान का विच्छेद हुमा, वहां दिगम्बर परम्परा के सभी ग्रन्थों में यह स्पष्टतः उल्लेख किया गया है कि अंतिम दश पूर्वधर धर्मसेन के स्वर्गस्थ होते ही वीर नि० सं० ३४५ में पूर्वज्ञान का विच्छेद हो गया और तदनन्तर वह (पूर्वज्ञान) एक देश अर्थात् अांशिक रूप में ही विद्यमान रहा । पूर्वज्ञान के अस्तित्वकाल के सम्बन्ध में दोनों परम्परायों की मान्यता में यह ६५५ वर्ष का अन्तर वस्तुतः प्रत्येक विचारक के लिये केवल चिन्तन ही नहीं अपितु चिन्ता का विषय भी है।
पूर्वज्ञान जैसे अत्यंत महत्वपूर्ण एवं अति विशाल ज्ञान का क्रमिक ह्रास तो युक्तिसंगत एवं बुद्धिगम्य हो सकता है किन्तु विना किसी असाधारण परिस्थिति १ (क) गोयमा ! जंबूदीवे णं दीवे भारहेवासे इमोसे प्रोसप्पिणीए ममं एग वाससहस्सं
पुष्वगए अणुसज्जिसइ। .
[भगवती सूत्र, श० २०, उ०८, मू० ६७७ (सुतागमे, पृ० ७०४)] (ख) वोलोणम्मि सहस्से वरिसारण वीरमोक्खगमरणाप्रो ।
उत्तर वायगवसभे, पुवगयस्स भवे छेदो ।।८०५॥ वरिस सहस्से पुण, तित्थोगालिए बढमारणस्स ।। नासीहि पुव्वगतं, अगुपरिवाडीए जं जस्म ।।८०६।।
[तित्थोगालियपइन्ना - अप्रकाशित!
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