________________
६०२
जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ सातवां निह्नब गोष्ठामाहिल
इसी प्रकार पृथक् होते देखा जाता है । जैसे अग्नि में तपाये गये लोहपिण्ड के करण करण में, प्रत्येक प्रदेश में अग्नि व्याप्त हो जाती है और शीतल जल प्रादि के प्रयोग से पुनः वह लोहगोलक शीतल - अग्निरहित हो जाता है। इसी प्रकार जीव के श्रात्मप्रदेशों में घुलमिल कर रहा हुआ भी कर्मारणु सम्यग्ज्ञान एवं क्रिया के योग से पृथक् किया जाता है मोर जीव कर्म रहित हो अपने "सत्यं शिवं सुन्दरम् "स्वरूप को प्राप्त कर लेता है ।"
विन्द्यमुनि ने गोष्ठामा हिल को वीतराग प्रभु द्वारा उपदिष्ट एतद्विषयक अर्थ समझाने का प्रयास किया । पर गोष्ठामाहिल अपने एकान्त प्रभिमत पर अड़ा रहा। मुनि विन्द्य ने वस्तुस्थिति गरणाचार्य के समक्ष रखी। श्राचार्य दुर्बलिकापुष्यमित्र ने भी शास्त्रीय प्रमारणों और युक्तियों से गोष्ठामाहिल को समझाने का प्रयास किया पर सब व्यर्थ । फिर श्रार्य दुर्बलिकापुष्यमित्र ने अन्यगच्छों के स्थविरों एवं शासनाधिष्ठात्री देवी के माध्यम से भी गोष्ठामाहिल को आत्मा के साथ कर्म के बन्ध के विषय में समझाने का पूरा प्रयास किया पर उसने हठाग्रह नहीं छोड़ा । गोष्ठा माहिल द्वारा को जाने वाली उत्सूत्र प्ररूपरणा से खिन्न हो धर्मसंघ ने उसे सप्तम निह्नव घोषित करते हुए संघ से बहिष्कृत कर दिया ।
सातवां निह्नव गोष्ठामाहिल किस समय हुआ, यह प्रश्न शताब्दियों से विद्वानों के समक्ष पहेली के रूप में उपस्थित रहा है । विशेषावश्यक भाष्य की -
पंचसया चुलसीया, तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्स । आबद्धियाण दिट्ठी दसपुर नयरे समुप्पन्ना ॥
इस गाथा से वीर नि० सं० ५८४ में दशपुर नगर में प्रबद्धिक दृष्टि की उत्पत्ति बताई गई है पर ऐतिहासिक अन्य ग्रन्थों में दुर्बलिकापुष्यमित्र के ऐतिहासिक काल के साथ प्रार्य रक्षित के सम्बन्ध को देखते हुए ५८४ का काल मेल नहीं खाता । यह श्रार्यरक्षित के स्वर्गगमन के पश्चात् की घटना है और यह एक सर्वसम्मत तथ्य है कि श्रार्यरक्षित वीर नि० सं० ५६७ में स्वर्गस्थ हुए। इतिहासविज्ञ इसके लिये विशेष गवेषरणा का प्रयत्न करेंगे ऐसी आशा है ।
२०. प्रायं दुर्बलिकापुष्यमित्र - युगप्रधानाचार्य
वीर नि० सं० ५६७ में प्राय रक्षित के स्वर्गस्थ होने के पश्चात् श्रार्य दुर्बलिकापुष्यमित्र युगप्रधानाचार्य बने । आपका जो थोड़ा बहुत परिचय उपलब्ध होता है, वह इस प्रकार है :
"दुर्बलिकापुष्यमित्र का जन्म वीर नि० सं० ५५० में एक सुसम्पन्न बौद्ध परिवार में हुआ । वीर नि० सं० ५६७ में आपने १७ वर्ष की अवस्था में प्रार्य रक्षित के पास निग्रंथश्रमण-दीक्षा ग्रहण की। दीक्षित होने के पश्चात् वर्षो विनयपूर्वक गुरुसेवा करते हुए निरन्तर के पठन, मनन और परावर्तन से प्रापने एकादशांगी मोर सार्द्धनव पूर्वो का ज्ञान अर्जित किया ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org