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पार्य स्कंदिल-वाचना•] सामान्य पूर्वधर-काल : प्रायं स्कन्दिल
६५१ ही बचे रह गये थे अतः उन्होंने दुभिक्ष के अन्त में मथुरा में पुनः अनुयोग (साधुओं को सूत्रार्थ का अध्यापन) प्रारम्भ किया।'
कहा जाता है कि १२ वर्षीय दृष्काल में भिक्षा न मिलने के कारण कितने ही जैन मुनि वैभारपर्वत तथा कुमारगिरि पर अनशन कर स्वर्गवासी हो गये। दुष्काल के पश्चात् जब आर्य स्कन्दिल ने मथुरा में जैन मुनियों की महती सभा प्रायोजित की तो उस समय स्थविर मधुमित्राचार्य और आर्य गन्धहस्ती प्रमुख १२५ निग्रंथ उसमें उपस्थित थे। उन निग्रंथों के स्मृतिपटल पर अंकित अवशिष्ट कण्ठस्य पाठों को मिला कर प्राचार्य गन्धहस्ती आदि की सम्मति से प्रार्य स्कंदिल ने ११ अगों का संकलन किया । वे ही सूत्र माथुरी वाचना के नाम से प्रसिद्ध हुए। यह भी कहा जाता है कि मथुरा निवासी प्रोस वंशीय श्रावक पोलाक ने गन्धहस्ती के विवरण सहित उन सूत्रों को ताड़पत्रादि पर लिखा कर मुनियों को प्रदान किया।
जिस समय मथुरा में प्राचार्य स्कन्दिल के नेतृत्व में आगम-वाचना हुई, लगभग उसी समय में दक्षिण के श्रमणों को एकत्रित कर प्राचार्य नागार्जुन ने भी वल्लभी में एक भागम-वाचना की। इस प्रकार के उल्लेख 'कहावली', 'योगशास्त्र प्रकाश' मोर 'ज्योतिषकरण्डक' आदि में उपलब्ध होते हैं ।
दुभिक्ष की समाप्ति के पश्चात् मथुरा और वल्लभी में हुई दोनों आगमवाचनामों का उल्लेख करते हुए भद्रेश्वरसूरि ने अपने ग्रन्थ 'कहावली' में लिखा है कि मथुरा में विशाल आगमज्ञान के धनी स्कन्दिल नाम के प्राचार्य और वल्लभी में नागार्जुन नामक प्राचार्य थे। दुष्काल के समय में उन महान् विरक्त आचार्यों ने साधुनों को दूर-दूर के देशों में भेज दिया। उस संकटकाल को किसी न किसी 'प्रयायमनुयोगोधभारते व्याप्रियमाणः कथं तेषां स्कन्दिलनाम्नामाचार्याणां सम्बन्धी ? उच्यते, इह स्कन्दिलाचायंप्रतिपत्तो... ... ..'द्वादशवार्षिक दुभिक्षमुदपादि तत्र चवं ये महति दुमिमे भिक्षालाभस्यासंभवादवसीदतां साधूनामपूर्वार्थग्रहणपूर्वार्थानुस्मरणश्रुतपरावर्तनानि मूलत एवापजग्मुः । श्रुतमपि चातिशायिप्रभूतमनेशत् । अंगोपांगादिगतमपि भावतो विप्रणष्टम् । तत्परावर्तनादेरभावात्, ततो द्वादशवर्षानन्तरमुत्पन्ने सुभिक्षे मयुरापुरि स्कन्दिलाचार्यप्रमुखश्रमणसंधेनंकत्र मिलित्वा यो यत् स्मरति स कथयतीत्येवं कालिकश्रुतं पूर्वश्रुतं च किंचिदनुसंधाय घटितं, यतश्चतन्मपुरापुरि संघटितं इयं वाचना "मापुरी"त्यभिधीयते, सा च तत्कालयुगप्रधानानां स्कन्दिलाचार्याणामभिमता तरेव चार्थतः शिष्य. बुद्धि प्रापितेति तदनुयोगः तेषामाचार्याणां सम्बन्धीति व्यपदिश्यते । प्रपरे पुनरेवमाहुः न किमपि श्रुतं दुभिभवादनेशत्, किन्तु तावदेव तत्काले तमनुवर्तते स्म । केवलमम्ये प्रषाना येऽनुयोगधराः ते सर्वेऽपि दुभिक्षकालकवलीकृताः, एक एव स्कंदिलसूरयो विद्यन्ते स्म । ततस्तैर्दुभिक्षापगमे मयुरापुरि पुनरनुयोगः प्रवर्तित इति वाचना माथुरीति व्यपविम्यते, अनुपोगाच तेषामाचार्याणामिति ।" [नन्दीसूत्र, मलयगिरि वृत्ति, पत्र ५१ (२) मधुरानिवासिना श्रमणोपासकवरेण मोसवंशविभूषणेन पोलाकाभिधेन तत्सकलमपि प्रवचन गंधहस्तिकृतविवरणोपेतं तालपत्रादिषु लेखयित्वा भिक्ष म्यः स्वाध्यायार्थ समर्पितम् ।
[हिमवन्त स्थविरावली]
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