________________
६८५
देवद्धि को गुरु-परम्परा] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण
... "सुहस्ति से सुस्थित-सुप्रतिबुद्धादि क्रम से चलने वाली प्रावलिका दशाश्रुत स्कन्ध के अनुसार खनी चाहिए। यहां (नन्दी सूत्र में) उसका अधिकार नहीं है। प्रस्तुत अध्ययन के रचनाकार देवद्धि का उसमें (कल्प स्थविरावली में) प्रभाव है इसलिये यहां महागिरी की प्रावलिका से ही प्रयोजन है।"
इस प्रकार टीकाकार प्राचार्य ने स्पष्ट कर दिया है कि कल्पस्थविरावली में देवद्धि (देववाचक) का नाम नहीं है, ऐसी स्थिति में दूष्यगरणी को देवद्धि के दीक्षा-गुरु मानने में और देवद्धिगणी को महागिरि की शाखा के वाचनाचार्य मानने में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं होती। चूणिकार जिनदासगणी ने भी स्पष्ट लिखा है - "दूसगणि सीसो देववायगो गाधुगण हियट्ठाए इणमाह।"२ ।
___ संभव है कल्पसूत्रीय स्थविरावली के अंत में प्राई हुई गाथाओं में निर्दिष्ट देसिगरणी पद दृष्यगणी का ही बोधक हो। आचार्य मेरुतुंग ने भी अपनी स्थविरावली में वृद्ध संप्रदाय का उल्लेख करते हुए लिखा है :- "स्थूलभद्र" के दो शिष्य हए, आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ती। उनमें से प्रार्य महागिरि की शाखा मुख्य है । 3 इससे आगे आचार्य मेरुतुंग ने और भी स्पष्ट करते हुए दो गाथाओं द्वारा बलिस्सह आदि क्रम से महागिरि परम्परा के प्राचार्यों की नामावली प्रस्तुत की है। उसमें दूष्यगणी के साथ देवद्धि का नाम अन्त में दिया गया है। वे गाथाएं इस प्रकार हैं :
सूरि बलिस्सहसाई, सामज्जो संडिलो य जीयधरो। अज्जसमुद्दो मंगू, नंदिल्लो नागहत्थी य ।। रेवइ-सिंहो खंदिल हिमवं नागज्जुरणा गोविंदा । सिरि भूइदिन्न-लोहिच्च-दूसगरिगणो य देवड्डी ।।
यहां यह अनमान करना कि मेरुतंग और मलयगिरि के उल्लेखों का कोई ठोस आधार नहीं है - ठीक नहीं। उनके पीछे महागिरि परम्परा के वाचकों का गुरु-शिष्य क्रम से उल्लेख करने वाली नन्दी-स्थविरावली की गाथाओं का पुष्ट एवं स्पष्ट प्रमाण विद्यमान है। प्राचार्य मेरुतंग ने ऐसा प्रानने का आधार जो वृद्ध सम्प्रदाय बताया है, उसका अर्थ किंवदन्ती रूप नहीं किन्तु मेरुतंग के समक्ष पूर्वाचार्यों की ऐसी परम्परा विद्यमान थी, ऐसा मानना चाहिए। बिना किसी पुष्ट प्रमाण के केवल कल्पना के आधार पर मलयगिरि और मेरुतुंग की मान्यता को अप्रामाणिक मानने का कोई कारण दृष्टिगोचर नहीं होता। ' थूलभद्दस्स अंतेवासी इमं दो थेरा-महागिरि एलावच्चसगोत्ते सुहत्थीवासिद्धसगोत्त।
सुहत्थिस्स सुट्ठितसुपडिबुद्धादयो प्रावलीते जहा दसासु (म० ८ सूत्रं २१०) तहा भारिणतम्वा, इहं तेहिं अहिगारो पत्थि, महागिरिस्स प्रावलीए अधिकारो।
[नंदी चूणि, पुण्य विजयजी, पृ० ८] २ नंदी चूणि, पृ० १०. 3 अत्र चायं वृद्ध सम्प्रदायः-स्थूलभद्रस्य शिष्यद्वयम्-१ प्रार्य महागिरिः, २ मार्य सुहस्ती च। तत्र आर्य महागिरेर्या शाखा सा मुख्या ।
[मेरुतुंगीया विचारश्रेणिः ]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org