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देवद्ध की गुरु परम्परा ] सामान्य पूर्वधर - काल : देवद्धि क्षमाश्रमण
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का कोई कारण समझ में नहीं आता । आर्य षाण्डिल्य यदि देवद्ध के गुरु होते तो अवश्य उनके प्रति कुछ विशिष्ट शब्दों द्वारा वन्दन पूर्वक गुरु भाव व्यक्त किया जाता ।
मुनिश्री की कल्पना के अनुसार यदि देवद्धिगरणी आर्य सुहस्ती की शाखा के प्राचार्य होते तो नंदीसूत्रस्थ स्थविरावली के समान ही कल्पसूत्रस्थ स्थविरावली में भी प्रत्येक श्राचार्य का विशेष स्तुतिपूर्वक परिचय दिया जाता । पर वस्तुतः कल्पसूत्रीया स्थविरावली में वैसा न कर, अमुक स्थविर का अन्तेवासी अमुक, केवल इतना ही परिचय दिया गया है । नन्दीसूत्रीया स्थविरावली में प्रत्येक प्राचार्य को वंदन और षांडिल्य के पश्चात् अधिकांश आचार्यों का स्तुतिपूर्वक स्मरण किया गया है । इसके विपरीत कल्प की स्थविरावली में आदि से अंत तक इतना ही बताया गया है कि कौन किसका शिष्य था । अन्तिम सूत्र में - "थे रस्स दिया है। इस णं प्रज्ज धम्मस्स कासवगुत्तस्स प्रज्ज संडिल्ले थेरे अंते वाक्य से केवल इतना ही अभिव्यक्त होता है कि स्थविर प्रायं धर्म के अंतेवासी श्रार्य पाण्डिल्य थे । इसके आगे १४ गाथाओं द्वारा १७वें स्थविर फल्गुमित्र से ३२ वें आर्य धर्म तक का स्मरण किया गया है। अंत में जम्बू प्रादि ६ प्राचार्यों का स्मरण कर किसी अन्यकर्तृक गाथा से देवद्धि का स्मरणपूर्वक वंदन किया गया है । कल्पसूत्रीया स्थविरावली गुरु-शिष्य क्रमवाली होने और षांडिल्य के पश्चात् अन्यकर्तृक गाथा द्वारा देवद्धि को वन्दन करने मात्र से ही यह अनुमान कर लेना कि सूत्र के लेखक प्राचार्य ( देवद्धि) की भी यही गुरु-परम्परा है और स्थविरावली के अन्तिम आचार्य पाण्डिल्य उनके दीक्षा- गुरु हैं, उचित नहीं । श्रार्य स्थविर वाण्डिल्य यदि देवद्धि के गुरु होते तो अवश्य ही कुछ विशिष्ट विशेषरणों से उनका दृष्यगणी के समान परिचय दिया जाता ।
ऐसी स्थिति में नन्दीसूत्र की स्थविरावली को माथुरी वाचनानुगत युगप्रधान स्थविरावली श्रथवा वाचकवंश पट्टावली कह कर उसे देवद्ध की गुर्वावली न मानना न तो कोई सयौक्तिक ही है और न किसी प्रमाण द्वारा पुष्ट ही ।
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यह ठीक है कि नन्दीसूत्र की स्थविरावली में मुख्य रूप से वाचकवंश की परम्परा प्रस्तुत की गई है और इसलिये कहीं-कहीं गुरुभाई एवं गणान्तर के प्राचार्य का भी वहां वाचक रूप से उल्लेख हो गया है पर इसका यह अर्थ नहीं कि उसमें गुरु-शिष्य का क्रम सर्वथा ही नहीं है । प्राचार्य नन्दिल से आगे के सभी नाम नन्दी की स्थविरावली में भी प्रायः गुरु-शिष्य क्रम से ही दिये गये हैं । श्रार्य सुधर्मा और जम्बू जैसे शिवंगत प्राचार्यों और अन्य विशिष्ट श्रुतधरों का कल्प की तरह यहां भी नाममात्र से स्मरण कर भूतदिन और दृष्यगरणी का तीन और दो गाथाओं से अभिवादन कर उनके चरणों में प्रणाम किया गया है। बिना विशिष्ट अनुराग और भक्ति के इस प्रकार गुणगानपूर्वक चरणवन्दन संभव नहीं होता । निश्चय ही इस प्रकार के अभिवादन के पीछे ग्राचार्य का कोई विशिष्ट अभिप्राय होना चाहिये और वह विशिष्ट अभिप्राय शिक्षा-दीक्षा यादि उपकार
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