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. जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [देवद्धि की गुरु-परम्परा प्रार्य महागिरि और सुहस्ती की शाखामों में बड़े होने के कारण महागिरि की शाखा को 'वृद्धशाखः' कहा जाना उचित ही है। जैसा कि विधिपक्ष पट्टावली में प्राचार्य देवद्धि की वन्दना करते हुए कहा गया है -
वीरस्स सत्तबीसे, पट्टे सुत्तत्थरयणसिंगारं । देवड्डिखमासमणं, पणमामि य वुड्डसाहाए ।।२१।।'
अर्थात् - वृद्ध शाखा में प्रभु महावीर के २७वें पट्टधर सूत्रार्थ रत्न के शृंगार से सुशोभित देवद्धि क्षमाश्रमण को नमस्कार करता हूँ।
वल्लमी-परिषद का प्रागम-लेखन श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय की यह परम्परागत एवं सर्वसम्मत मान्यता है कि वर्तमान में उपलब्ध पागम देवद्धिगणी क्षमाश्रमण द्वारा लिपिबद्ध करवाये गये थे। लेखनकला का प्रारम्भ भगवान ऋषभदेव के समय से मानते हुए भी यह माना जाता है कि प्राचार्य देवद्धि क्षमाश्रमण से पूर्व प्रागमों का व्यवस्थित लेखन नहीं किया गया। पुरातन पराम्परा में शास्त्रवारणी को परमपवित्र मानने के कारण उसकी पवित्रता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये प्रागमों को श्रतपरम्परा से कण्ठाग्र रखने में ही श्रेय समझा जाता रहा। पूर्वकाल में इसीलिये शास्त्रों का पुस्तकों अथवा पन्नों पर पालेखन नहीं किया गया। यही कारण है कि तब तक श्रुत नाम से ही शास्त्रों का उल्लेख किया जाता रहा ।
जैन परम्परा ही नहीं वैदिक परम्परा में भी यही धारणा प्रचलित रही और उसी के फलस्वरूप वेद वेदांगादि शास्त्रों को श्रति के नाम से सम्बोधित किया जाता रहा । जैन श्रमणों की अनारम्भी मनोवत्ति ने यह भी अनुभव किया कि शास्त्र-लेखन के पीछे बहत सी खटपटें करनी होंगी। कागज. कलम, मसी और मसिपात्र प्रादि लाने, रखने तथा सम्हालने में प्रारम्भ एवं प्रमाद की वृद्धि होगी। ऐसा सोच कर ही वे लेखन की प्रवृत्ति से बचते रहे । पर जब देखा कि शिष्यवर्ग की धारणा-शक्ति उत्तरोत्तर क्षीण होती चली जा रही है, शास्त्रीय पाठों की स्मृति के प्रभाव से शास्त्रों के पाठ-परावर्तन में भी ग्रालस्य तथा संकोच होता जा रहा है, बिना लिखे शास्त्रों को सुरक्षित नहीं रखा जा सकेगा ,शास्त्रों के न रहने से ज्ञान नहीं रहेगा और ज्ञान के अभाव में अधिकांश जीवन विषय, कषाय एवं प्रमाद में व्यर्थ ही चला जायगा, शास्त्र-लेखन के द्वारा पठन-पाठन के माध्यम से जीवन में एकाग्रता बढ़ाते हुए प्रमाद को घटाया जा सकेगा और ज्ञानपरम्परा को भी शताब्दियों तक अबाध रूप से सुरक्षित रखा जा सकेगा, तब शास्त्रों का लेखन सम्पत्र किया गया ।
इस प्रकार संघ को ज्ञानहानि और प्रमाद से बचाने के लिये संतों ने शास्त्रों को लिपिबद्ध करने का निश्चय किया। जैन परम्परानमार यार्य रक्षित एवं आर्य स्कन्दिल के समय में कुछ शास्त्रीय भागों का लेखन प्रारम्भ हुग्रा माना ' भाबसागर की 'विधिपक्ष पदावली' ।
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