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देवदि का स्वर्गगमन | सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण
६६१ की उस गाथा में अंतिम दशपूर्वधर आय सत्यमित्र के लिये अभिव्यक्त किये गये भावों को नाम साम्य के कारण २८व युगप्रधानाचाय सत्यमित्र के साथ जोड़ कर भ्रान्तिवश पट्टावलोकारों द्वारा उन्ह अन्तिम पूर्वधर मान लिया गया है । तित्थोगाली पइन्ना की पूर्वगत श्रुतविषयक गाथायों के समीचीनतया पालोचन से यह स्पष्टतः प्रकट हो जाता है कि सत्यमित्र को अंतिम दशपूर्वधर बताया गया है, न कि अंतिम एक पूर्वधर । वीर नि० सं० ६६४ से १००१ तक युगप्रधान पद पर रहने वाले २८व युगप्रधानाचार्य आर्य सत्यमित्र यदि अंतिम पूर्वधर होते तो तित्थोगाली पइना में अंतिम वाचक-वृषभ (देवद्धिगरणी) को अंतिम पूर्वधर न बता कर आर्य सत्यमित्र को बताया जाता।
पूर्व-ज्ञान के लुप्त होने विषयकं तथा श्रमणोत्तम प्रार्य सत्यमित्र से सम्बन्धित तित्थोगाली पइन्ना की वे गाथाए इस प्रकार हैं :
नामेण सच्चमित्तो, समणो समणगुणनिउण विचतियो। होही अपच्छिमो किर, दसपुव्वी धारो वीरो ।।८०२।। एयस्स पुवसुयसारस्स, उदहिव्व छल्ल अपरिमेयस्स । सुरसु जह अथ काले, परिहारणी दीसते पच्छा ।।८०३।। पुव्वसुयतेल्ल भरिए, विज्झाए सच्चमित्त दीवम्मि। धम्मावायनिसिल्लो, होही लोगो सुयनिसिल्लो ।।८०४।।
अर्थात् - श्रमरण-गुणों की परिपालना में पूर्णतः निपुण सत्यमित्र नामक वीर भ्रमण अन्तिम दशपूर्वधर होंगे । अगाध उदधि के समान छलाछल भरे सारभूत पूर्वश्रुत का कालान्तर में किस प्रकार ह्रास होगा, यह सुनिये । पूर्वश्रुत रूपी तेल से भरे आर्य सत्यमित्र रूपी दीपक के बुझ जाने पर लोग (अंधिकांशतः) धर्माचरण एवं श्रुताराधन से विरत हो जायेंगे।"
ऐसा प्रतीत होता है कि उपरोक्त गाथा संख्या ८०४ से किसी समय इस प्रकार की भ्रान्ति का जन्म हुमा कि सत्यमित्र के स्वर्गगमन के साथ ही सम्पूर्ण पूर्वज्ञान विनष्ट हो गया और उसके फलस्वरूप लोग धर्माचरण एवं श्रुताराधन से विहीन हो गये । वस्तुतः इस गाया द्वारा अन्तिम दशपूर्वधर सत्यमित्र के स्वर्गगमन से हुई धर्म एवं श्रुत को हानि का ही उल्लेख किया गया है, न कि पूरे पूर्वगत ज्ञान के विलुप्त होने का। जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है प्रायें देवद्धिगरंगी 'क्षमाश्रमण को ही तित्थोगाली पइन्ना में अन्तिम पूर्वधर बताते हुए स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि उनके निधन के साथ ही पूर्वगतज्ञान विलुप्त हो जायगा।
- इस प्रकार ऊपर बताये हुए सब तथ्यों पर विचार करने से सुनिश्चित रूपेण यह सिद्ध हो जाता है कि वीर नि० सं० ६८० से लेकर पंचम प्रारक की समाप्ति तक के २००२०.वर्षों जैसे सुदीर्घ काल में होने वाले कोटि-कोटि श्रमणों, श्रमरिणयों, श्रमरणोपासकों, श्रमणोपासिकामों एवं साधकों पर प्रागमलेखन द्वारा अनन्त उपकार करने के पश्चात् अन्तिम वाचकवृषभ देवद्धि श्रमाश्रमण वीर नि० सं० १००० के समाप्त होने पर स्वर्ग सिधारे।
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