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कालकाचार्य चतुर्थं ] सामान्य पूर्वधर - काल : देवद्ध क्षमाश्रमण
६६३
इस प्रकार आचार्य कालक उस समय के प्रधान आचार्य माने गये हैं । दुष्षमाकाल श्रमरणसंघ - स्तोत्र के अनुसार वज्रसेन ( वीर नि० सं० ६२० ) के पश्चात् ६६ वर्ष नागहस्ती, ५६ वर्ष रेवतीमित्र, ७८ वर्ष ब्रह्मद्वीपकसिंह, ७८ वर्ष नागार्जुन, ७६ वर्ष भूतदिन और तदनन्तर ११ वर्ष कालकाचार्य का प्राचार्यकाल रहा । तदनुसार वीर नि० सं० ६६४ में कालकाचार्य का स्वर्गवास माना गया है ।
वीर नि० सं० ६६३ में कालकाचार्य द्वारा चतुर्थी के दिन पर्यपरण पर्व मनाने की जो बात कही जाती है, वह उल्लेख वस्तुतः वीर नि० सं० ४५७ से ४६५ के बीच किसी समय द्वितीय कालकाचार्य द्वारा प्रचलित किये गये चतुर्थी - पर्वाराधन के स्थान पर मध्य काल में जो पंचमी के दिन पर्वाराधन का प्रचलन हो गया था, उसे निरस्त कर पुनः चतुर्थी - पर्वाराधन को स्थिर करने की दृष्टि से किया गया प्रतीत होता है ।
२८ श्रयं सत्यमित्र - युगप्रधानाचार्य
दुष्षमाकाल श्रमरणसंघस्तोत्र के अनुसार २८वें युगप्रधानाचार्य श्रार्य सत्यमित्र का द्वितीयोदय के युगप्रधानाचार्यों में आठवां स्थान माना गया है। युगप्रधान कालकाचार्य (चतुर्थ) के स्वर्गगमन के पश्चात् वीर नि० सं० ९६४ में प्रार्य सत्यमित्र २८वें युगप्रधानाचार्य हुए।
श्रापका केवल यही परिचय उपलब्ध होता है कि वीर नि० सं० ६५३ में भाका जन्म हुआ । वीर नि० सं० ६६३ में श्रापने १० वर्ष की बाल्यावस्था में श्रमण-दीक्षा ग्रहण की। तीस वर्ष तक सामान्य श्रमण-पर्याय में रहने के अनन्तर वीर नि० सं० ६६३ में प्रापको युगप्रधानाचार्य पद पर अधिष्ठित किया गया । आपने ७ वर्ष तक युग प्रधानाचार्य के रूप में जिन शासन की सेवा करने के पश्चात् ४७ वर्ष, ५ मास और ५ दिवस की प्रायु समाधिपूर्वक पूर्ण कर वीर नि० सं० १००१ में स्वर्गारोहण किया ।
देवद्ध कालीन राजनैतिक स्थिति गुप्त-सम्राट् स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य (वीर नि० सं० ६८२ -६६४)
वीर नि० सं० ६८२ में कुमार गुप्त की मृत्यु के पश्चात् उसका बड़ा पुत्र स्कन्दगुप्त सुविशाल गुप्त साम्राज्य का स्वामी बना । इसका पहला अभिलेख, जूनागढ़ का चट्टान-अभिलेख गुप्त सम्वत् १३६ का और अन्तिम गढवा का शिलालेख गुप्त सं० १४८ का है । इन दोनों शिलालेखों के आधार पर यह विश्वास किया वयरसेण ३, नागहस्ति ६६, रेवतीमित्र ५६, बह्मदीवगसिंह ७८, नागार्जुन ७८, एवं वर्षारण ६०४, भूतदिन ७६, कालकाचार्य ११
[ दुष्पमाकाल श्रमण संघस्तोत्र, भवचुरि, पट्टा० समु० पृ० १८ ]
२ देखें द्वितीय कालकाचार्य का प्रकरण, पृ० ५१७ - २१
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