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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग
२७ कालकाचार्य (चतुर्थ) - युगप्रधानाचार्य २६वें युगप्रधानाचार्य आर्य भृतदिन के पश्चात् आर्य कालक २७वें युगप्रधान हए। चतुर्थ कालकाचार्य' के सम्बन्ध में निम्नलिखित रूप से परिचय उपलब्ध होता है :
नागार्जुन की परम्परा में आगे चल कर प्रार्य कालक हए । उनका जन्म वीर सं० १११ में, दीक्षा ९२३ में, युगप्रधान पद ६८३ में और स्वर्गवास वीर सं० ६६४ में माना जाता है। श्वेताम्बर परम्परा में यही प्राचार्य कालक, चतुर्थ कालकाचार्य के रूप में विख्यात हैं।
वल्लभी में हुई अन्तिम भागम-वाचना में जिस प्रकार प्राचार्य स्कंदिल की माथुरी-वाचना के प्रतिनिधि आचार्य देवद्धि क्षमाश्रमण थे, उसी प्रकार प्राचार्य नागार्जुन की वल्लभी-आगमवाचना के प्रतिनिधि कालक सूरि (चतुर्थ कालका. चार्य) थे। वल्लभी में वीर नि० सं०६८० में हुई अन्तिम प्रागमवाचना में इन दोनों प्राचार्यों ने मिल कर दोनों वाचनाओं के पाठों को मिलाने के पश्चात् जो एक पाठ निश्चित किया, उसी रूप में प्राज पागम विद्यमान हैं।
इस प्रकार के प्राचीन उल्लेख उपलब्ध हैं कि वीर नि० सं० ६६३ में वल्लभी के राजा ध्रुवसेन के राजकुमार की मृत्यु हो गई और शोकसंतप्त राजपरिवार बड़नगर में निवास करने लगा। कालकाचार्य ने उस वर्ष वहाँ चातुर्मास कर राजकुटुम्ब के शोकनिवारणार्थ संघ के समक्ष कल्पसूत्र की वाचना प्रारम्भ की। राजा ने भी शोक का परित्याग कर, उपाश्रय में प्रा कल्पसूत्र का श्रवण किया। तभी से संघ के समक्ष कल्पसूत्र का प्रकट रूप से वाचन होने लगा, जो आज तक भी प्रचलित है। . प्रथम और द्वितीय कालकाचार्य का यथासम्भव पूर्ण परिचय यथास्थान दिया जा चुका है।
प्रस्तुत ग्रन्थ के पृष्ठ ४७४ पर कल्पसूत्रीया स्थविरावली के प्राचार्यो की नामावली में क्रम संख्या २५ पर प्रार्य सुहस्ती की परम्परा के २५वें गणाचार्य प्रार्य कालक का नाम दिया गया है। मार्य सुहस्ती की परम्परा के १३वें प्राचार्य मावण के पश्चात् कल्प. सूत्रीया स्थविरावली में जिन माचार्यों के नाम दिये गये हैं, उन प्राचार्यों का परिचय . उपलब्ध नहीं होता। यही कारण है कि प्रस्तुत प्रन्य में उन गणाचार्यों का नामोल्लेख के अतिरिक्त कोई परिचय नहीं दिया जा सका है । प्रथम, द्वितीय एवं चतुर्थ कालकाचार्य का परिचय प्राप्त करने के पश्चात् सहज ही प्रत्येक पाठक को तृतीय कालकाचार्य का परिचय प्राप्त करने की जिज्ञासा होना संभव है। पर वस्तुतः तृतीय कालकाचार्य का केवल इतना ही परिचय उपलब्ध है कि वे प्रार्य सुहस्ती की परम्परा के २५वें गणाचार्य थे। भाप माढर गोत्रीय प्रायं विष्णु के शिष्य एवं पट्टधर थे। प्रार्य कालक के प्रमुख शिष्य का नाम संघपालित था, जो कल्प-स्पविरावली के अनुसार मापके स्वर्गारोहण के पश्चात् प्रायं सुहस्ती की परम्परा में २६वें प्राचार्य बने । रत्नसंचय प्रकरण (पत्र ३२) केसत्तसयवीस अहिए, कालिगगुरू सक्कसंयुणियो ॥५७॥ इस उल्लेख के अनुसार मापके गणाचार्य पद पर प्रासीन होने का समय वीर नि.सं. ७२० माना गया है।
-सम्पादक
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