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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [देवद्धि का० रा० स्थि. देते हैं कि कुमारगुप्त का शासनकाल गुप्त संवत् १३६ (ई० सन् ४५५) तदनुसार वीर नि० सं० ६८२ में समाप्त हो गया।
उपरोक्त प्रमाणों में से अंतिम प्रमाण (जूनागढ़ का चट्टान-अभिलेख) इस तथ्य को तो सिद्ध करता ही है कि गुप्त संवत् १३६ में कुमारगुप्त की मृत्यु होते ही स्कन्दगुप्त का शासनकाल प्रारम्भ हुआ। इस तथ्य के अतिरिक्त निम्नलिखित तथ्य भी जूनागढ़ के उपरोक्त चट्टान अभिलेख से प्रकट होते हैं :
१. गुप्त संवत् १३६ ( ई० सं० ४५५, वीर नि० सं० ९८२) में जिस समय कुमारगुप्त की मृत्यु हुई और स्कन्दगुप्त विशाल गुप्तसाम्राज्य का स्वामी बना, उसी वर्ष में हूणों ने भारत पर बड़ा भयंकर आक्रमण किया।
२. उसी वर्ष में अर्थात् वीर नि० सं० ६८२ में स्कन्दगुप्त ने हूणों के साथ युद्ध किया और युद्ध में उनका भीषण रूप से संहार कर उन्हें बुरी तरह पराजित किया।
उपरिवरिणत तथ्यों से यह भलीभांति प्रमाणित हो जाता है कि गुप्त सं० १३६ (ई० सन् ४५५) में कुमारगुप्त की मृत्यु होने पर उसका उत्तराधिकारी स्कन्दगुप्त विशाल गुप्त-साम्राज्य के राज-सिंहासन पर आसीन हुआ। उसके राज्यसिंहासन पर आरूढ़ होते ही ई० सन् ४५५ में हरगों ने भारत पर आक्रमण किया। उसी वर्ष स्कन्दगुप्त ने हूणों को पराजित कर जूनागढ़ का शिलालेख उट्ट कित करवाया। ऐसी स्थिति में कुमारगप्त (प्रथम) और स्कन्दगुप्त के बीच में पुरुगुप्त के सम्राट् बनने का न कोई प्रश्न ही उत्पन्न होता है और न कोई अवकाश ही रह जाता है। वस्तुतः कुमारगुप्त (प्रथम) के पश्चात् स्कन्दगुप्त गुप्तसाम्राज्य का स्वामी बना यह एक निर्विवाद सत्य है।
हणों को पराजित करने के पश्चात् स्कन्दगुप्त ने अपने साम्राज्य के सभी प्रान्तों में अपने परम विश्वासपात्र और सुयोग्य शासकों को नियुक्त किया। जिससे कि देश के शत्रुओं को शिर उठाते ही कुचल दिया जा सके। उन दिनों सौराष्ट्र सुरक्षा की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रदेश माना जाता था। डिमिदि' क्रमेण बुढ्या निपुणं प्रधार्य, ध्यात्वा च कृत्स्नान् गुणदोषहेतून् ।
व्यपेत्य सर्वान्मनुजेन्द्रपुत्रान्, लक्ष्मी: स्वयं यं वरयाञ्चकार ॥ [जूनागढ़ का लेख] २ प्रथयन्ति यशांसि यस्य, रिपवोऽप्यामूलभग्नदर्पा निर्वचना म्लेच्छ देशेषु। [वही]
"स्कन्दगुप्त ने जिन शत्रुमों की शक्ति को मामूलचूल विनष्ट कर उनके घमण्ड को चकनाचूर कर डाला, वे शत्रु स्वयं द्वारा पूर्वतः विजित म्लेच्छ देशों (ईराक, ईरान प्रादि) में भी भीगी बिल्ली की तरह चुपचाप रह कर स्कन्दगुप्त के यश का विस्तार कर रहे है" - यह तीखा कटाक्ष शतप्रतिशत हूणों पर ही पटित होता है। वस्तुतः स्कन्दगुप्त ने हूणों की , रीढ़ की हड्डी तोड़ दी थी। ई० सम् ४५५ के इस युद्ध में हूणों को जनधन की इतनी अधिक क्षति हुई कि इस युद्ध के ४५ वर्ष पश्चात् कहीं हूणों का सरदार तोरमाण भारत पर बड़ा आक्रमण करने का साहस कर सका पौर. सन् ५०२ में उमने मालवा पर अधिकार किया।
-सम्पादक
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