________________
4.-परि० का पागम ले०] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण
६८७ गया है। किन्तु प्रागमों का सुव्यवस्थित सम्पूर्ण लेखन तो आचार्य देवद्धि क्षमाश्रमरण द्वारा वल्लभी में ही सम्पन्न किया जाना माना जाता है।
देवदि के समय में कितने व कौन-कौन से शास्त्र लिपिबद्ध कर लिये गये एवं उनमें से प्राज कितने उसी रूप में विद्यमान हैं, प्रमारणाभाव में यह नहीं कहा जा सकता। "प्रागम पुत्थय लिहियो" इस परम्परागत अनुश्रुति में सामान्य रूप से आगम पुस्तक रूप में लिखे गये - इतना ही कहा गया है । संख्या का कहीं कोई उल्लेख तक भी उपलब्ध नहीं होता। अर्वाचीन पुस्तकों में ८४ पागम और अनेक ग्रन्थों के पुस्तकारूढ करने का उल्लेख किया गया है। नंदीसूत्र में कालिक और उत्कालिक श्रुत का परिचय देते हुए कुछ नामावली प्रस्तुत की है। बहुत सम्भव है देवदि क्षमाश्रमण के समय में वे श्रुत विद्यमान हों और उनमें से अधिकांश सूत्रों का देवद्धि गरणी क्षमाश्रमण ने लेखन करवा लिया हो। नन्दीसूत्रानुसार कालिक एवं उत्कालिक सूत्रों की संख्या निम्न प्रकार है :--
उत्कालिक सुय (धुत) १. दसवेयालियं
१६. सूरपण्णत्ती २. कप्पियाकप्पियं
१७. पोरिसिमंडल ३. चुल्लकप्पसुयं
१८. मंडलपवेस ४. महाकप्पसुयं
१६. विज्जाचरणविरिणच्छयो ५. उववाइय
२०. गणिविज्जा ६. रायपसेरगइय
२१. झारणविभत्ती ७. जीवाभिगम
२२. मरणविभत्ती ८. पन्नवरणा
२३. प्रायविसोही ६. महापन्नवरणा
२४. वीयरागसुयं १०. पमायप्पमाय
२५. संलेहरणासुयं ११. नंदी
२६. विहारकप्पो १२. अणुप्रोगदाराई
२७. चरणविहि १३. देविन्दथव
२८. पाउरपच्चक्खारण १४. तंदुलवेयालिय
२६. महापच्चक्खाण, आदि १५. चंदाविज्जय
कालिक सुय (श्रुत)
१२ अंग १. पायारो
७. उवासगदसायो २. सुयगडो
८. अंतगडदसाम्रो ३. ठाणं
६. अरगुत्तरोव वाइयदसाम्रो ४. समवाप्रो
१०. पण्हावागरणाई ५. विवाहपण्णत्ती
११. विवाग सुयं ६. नायाधम्मकहानो
१२. दिठिवाओ (विच्छिन्न)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org