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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [देवद्धि को गुरु-परम्परा जन्य गुरुभक्ति के अतिरिक्त अन्य नहीं हो सकता। देवद्धि द्वारा नंदी स्थविरावली की ४०वीं एवं ४१वीं गाथानों में प्राचार्य दूष्यगणी के प्रशस्त लक्षण युक्त कोमलसुकुमार चरणों का जिस रूप में वर्णन करते हुए वंदन किया गया है, उस प्रकार का वर्णन किसी साक्षात् द्रष्टा श्रद्धालु द्वारा ही किया जा सकता है। यदि देवद्धि सुहस्ती की परम्परा के वाचक होते तो वे अवश्य ही कल्पस्थ स्थविरावली में भी ऐसी स्तुति-परक गाथा द्वारा षांडिल्य के गुणों के उल्लेखपूर्वक उनका अभिवादन करते। पर वहां ऐसा दृष्टिगोचर नहीं होता। कल्प स्थविरावली के अन्त में जो देवद्धि के लिये स्तुतिपरक गाथा दी गई है, वह भी अन्यकर्तृक होने के कारण गुरुपरम्परा का निर्णय करने में प्रामाणिक नहीं मानी जा सकती।
___ इन सब तथ्यों पर तटस्थ गवेषक की दृष्टि से गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर देवद्धि को दूष्यगणी का शिष्य मानना ही उचित प्रतीत होता है । दूष्यगणी के साथ देवगिणी का गणीपदान्त नाम भी दोनों के बीच गुरु-शिष्य जैसा निकट सम्बन्ध सूचित करता है।
देवद्धि क्षमाश्रमण को परम्परा से उग्रविहारी एवं दृढाचारी माना जाता है। जैसा कि एक प्राचीन गाथा द्वारा प्रकट होता है - .
देवड्डिखमासमणजा; परं परं भावो वियाणेमि ।
सिढिलायारे ठविया, दम्वेण परंपरा बहुहा ।' अर्थात् - देवद्धि क्षमाश्रमण पर्यंत प्राचार मार्ग की भाव-परम्परा चलती रही। उनके पश्चात् शिथिलाचार के कारण द्रव्य-परम्परा का बाहुल्य हो गया।
उपरोक्त गाथा के निर्देशानुसार देवद्धि क्षमाश्रमण का भावपरम्परानुगामी रुख भी उनका महागिरीया परम्परा के प्राचार्य होना प्रमाणित करता है।
कुछ वर्ष पहले नन्दी सूत्र की प्रस्तावना में हमने देवद्धि के लिये सुहस्ती की परम्परा के प्राचार्य होने का उल्लेख किया था किन्तु वर्तमान के अनुसन्धान से आज इसी निर्णय पर पहुंचते हैं कि देवद्धि क्षमाश्रमण दोनों परम्पराओं में मान्य होने पर भी वाचक दृष्यगरणी के ही शिष्य होने चाहिए। संभव है कि प्रार्य देवद्धि विशिष्ट श्रुतधर एवं सर्वप्रिय उदारमना आचार्य होने के कारण दोनों ही परम्परामों में समान रूप से सम्मान-प्राप्त माने गये हों। इसके उपरान्त भी नन्दी स्थविरावली को एकान्ततः महागिरी की ही परम्परा नहीं कहा जा सकता, इसमें सुहस्ती की शाखा के नागार्जुन जैसे आचार्यों के नाम भी सम्मिलित हैं। इतना सब कुछ होते हुए भी इसमें महागिरि की परम्परा के प्राचार्यों की प्रधानता एवं बाहुल्य होने के कारण नन्दी स्थविरावली को लब्धप्रतिष्ठ प्राचार्यों द्वारा टीका चूणि आदि में महागिर्यावलिका ही माना गया है। दूष्यगणी महागिरी की शाखा के प्राचार्य हैं, अतः देवद्धि क्षमाश्रमण को भी प्राचार्य महागिरी की शाखा के ही प्राचार्य मानना युक्तिसंगत प्रतीत होता है। जैसा कि टीकाकार मलयगिरि ने कहा है - ' आगम अष्टोत्तरी
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