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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य २. कुमार चन्द्रगुप्त ने स्त्रीवेष में शकराज के पास जाने और उसे मारने
की पूरी तैयारी की और इष्टसिद्धि हेतु प्रस्थान किया।' ३. ध्रुवदेवी के कक्ष के समीप से जाते हुए चन्द्रगुप्त ने राहु द्वारा प्रस्त
चन्द्रकला के समान दुःख, करुणा और शोक से म्लान, अपने पति के नपुंसक तुल्य पाचरण के कारण प्रात्यन्तिक लज्जा, कोप, विषाद, भय
एवं घृणा से प्रपीड़िता ध्रुवदेवी को देखा।
ईसा की सातवीं शताब्दी के कवि बाण ने अपने ग्रन्थ 'हर्षचरित्र' में सौराष्ट्र के पर-स्त्री-लम्पट शकराज (रुद्रसिंह तृतीय) को स्त्रीवेषधारी चन्द्रगुप्त द्वारा मार दिये जाने का उल्लेख निम्नलिखित एक वाक्य में किया है :"परिपुरे च परकलत्रकामुकं कामिनीवेशगुप्तः चन्द्रगुप्तः शकपतिमशातयत् ।"
ईसा की नौवीं शताब्दी के शंकराय नामक टीकाकार ने उपरोक्त वाक्य की टीका करते हुए लिखा है- "शकानामाचार्यः शकाधिपतिः चन्द्रगुप्तभ्रातृजायां ध्रुवदेवी प्रार्थयमानः चन्द्रगुप्तेन ध्रुवदेवीवेषधारिणा स्त्रीवेषजनपरिवृतेन व्यापादितः ।" अर्थात् शक राजा ने चन्द्रगुप्त के भाई की महारानी ध्रुवदेवी को अपने पास पहुँचाने की मांग की। इस पर चन्द्रगुप्त ने ध्रुवदेवी का वेष पहिन कर स्त्री वेषधर पुरुषों को साथ ले शक राजा को मार डाला।
ईसा की दशवीं शताब्दी के कन्नोजाधिपति यशोवर्मा के राजकवि राजशेखर ने अपने ग्रन्थ काव्यमीमांसा में हिमाद्रि की पर्वतमालानों पर किसी खस राजा के धेरे में आये हुए शर्मगुप्त नामक राजा द्वारा अपनी महारानी ध्रुवस्वामिनी को उस खस राजा को अपित किये जाने और वहाँ से हतोत्साहित हो लोटने का उल्लेख किया है। राजशेखर ने उस राजा की क्लैब्यता पर व्यंग कसते हुए आगे लिखा है कि षण्मुख कार्तिकेय के हिमालयवर्ती उस नगर की कामिनियां हिमालय पर्वत की गफानों में वायु के संसर्ग से निकलती हुई विविध ध्वनियों की लय के साथ प्रो शर्मगुप्त ! तेरे यश के गीत गा रही हैं। ' प्रकृतीनामाश्वासनाय शकस्य ध्रुवदेवीसंप्रदाने अभ्युपगते राजा रामगुप्तेन परिवधनार्थ यियासुः प्रतिपन्नध्रुवदेवी नेपथ्यः कुमारचन्द्रगुप्तो विज्ञपयन्नुच्यते ।
['देवीचन्द्र गुप्त' का नाट्यदर्पण' में उद्धरण] २ यथा 'देवीचन्द्रगुप्ते' चन्द्रगुप्तो ध्रुवदेवीं दृष्ट्वा स्वगतमाह-इयमपि सा देवी तिष्ठति । यंषा - रम्यां चारतिकारिणी च करुणाशोकेन नीतां दशाम्,
तत्कालोपगतेनराशिरसा गुप्तेव चान्द्रीकला। पत्युःक्लीवजनोचितेन चरितेनानेन पुसः सतः ।।
लज्जाकोपविषादभीत्यरतिभिः क्षेत्रीकृता ताम्यते । [वही] 'दत्वा रुटगतिः खसाधिपतये देवीं ध्रुवस्वामिनीम्, पस्मात् खण्डितसाहसो निववृते श्री शर्मगुप्तो नृपः । तस्मिन्नेव हिमालये गुरगुहाकोणतावरणत्किन्नरे, गीयन्ते तब कार्तिकेयनगरस्त्रीणां गणः कीर्तयः ।। [काव्य मीमांसा, राजशेखर]
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