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देवद्धि क्षमाश्रमण] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमणे
६७७ ___ कुछ लेखक आपको दृष्यगणी का शिष्य मान कर उनका उत्तराधिकारी वाचनाचार्य बताते हैं और कतिपय लेखक लोहित्य का शिष्य एवं उत्तराधिकारी। वास्तव में देवद्धिगणी किस परम्परा के और किसके शिष्य थे, इस विषय में आगे विचार किया जायगा।
परम्परा से यह कहा जाता है कि देवद्धि क्षमाश्रमण ने श्रमणसंघ की अनुमति से वीर नि. सं. ९८० में बल्लभी में एक वृहत् मुनिसम्मेलन किया और उसमें आगमवाचना के माध्यम से, जिनको जैसा स्मरण था, उसे सुन कर उपलब्ध शास्त्रों के पाठों को व्यवस्थित कर आगमों को पुस्तकारूढ किया। जैसा कि कहा गया है :
बलहिपुरम्मि नयरे, देवढिपमूहसमणसंघेणं ।
पुत्थइ आगम लिहिलो, नवसय असियानो वीरानो।। श्रद्धालुओं द्वारा परम्परा से यह मान्यता अभिव्यक्त की जा रही है कि आपके तप-संयम की विशिष्ट साधना एवं आराधना से कपर्दि यक्ष, चक्रेश्वरी देवी तथा गोमुख यक्ष सदा आपकी सेवा में उपस्थित रहते थे।
प्रागमवाचना अथवा लेखन मथुरा में प्रार्य स्कन्दिल द्वारा और वल्लभी में नागार्जुन द्वारा की गई आगमवाचना के पश्चात् १५० वर्ष से भी अधिक समय बीतने पर प्राचार्य देवद्धिगरणी ने वल्लभी में श्रमण संघ को एकत्र कर श्रतरक्षा की विचारण की। कहा जाता है कि समय की विषमता, मानसिक दुर्बलता और मेधा की मन्दता आदि कारणों से जब सूत्रार्थ का ग्रहण, धारण एवं परावर्तन कम हो गया, स्वयं देवद्धि भी कफ व्याधि की शान्ति के लिये प्रौषधरूप से लाई गई सोंठ का सेवन करना भूल गये। प्रतिलेखन के समय सोंठ को नीचे गिरी हुई देख कर उन्हें स्मृति हुई तो प्राचार्य ने एक मुनि-परिषद की प्रायोजना कर संघ के समक्ष विचार रखा कि भावी मन्द मेघावी श्रमरणों में इस प्रकार श्रुतिपरम्परा से शास्त्रज्ञान किस तरह अक्षुण्ण रह पायेगा? अतः कोई उपाय सोचना चाहिए जिससे कि श्रुतज्ञान का यथावत् रक्षण हो सके । विचार-विमर्श के पश्चात् सब ने निर्णय किया कि विद्यमान शास्त्रों एवं ग्रन्थों को लिपिबद्ध कर लिया जाय । उस मूनि-परिषद का देवद्धि क्षमाश्रमरण ने नेतृत्व किया। परिषद में आगमवाचना की गई अथवा शास्त्र लिपिबद्ध किये गये, इस विषय में इतिहास लेखक एकमत नहीं हैं । परम्परानुसार कई विद्वान् इसे आगमवाचना मानते हैं तो कतिपय नवीन शोधक इसे मात्र आगम-लेखन ही। वास्तव में इसे वाचनापूर्वक आगमलेखन कहा जाय तो अनुचित नहीं होगा। यह तो सुनिश्चित है कि वीर नि.सं. १८० में देवद्धि क्षमाश्रमण ने प्रागमों को लिपिबद्ध करने का निर्णय किया। उन्होंने प्रथमतः उपस्थित श्रमणों से आगमों के पाठों को सुन एवं ध्यान में लेकर उन्हें व्यवस्थित किया और जहां कुछ वाचनाजन्य भेद सामने आया, वहां
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