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जैन का मौलिक इतिहास-विसीय भाग [मागम वा०मा लेखन प्रश्न पर दुराग्रह अथवा संघर्ष की संभावना ही किस प्रकार हो सकती है ? संभव है 'वालभ्य संघ के लिये कार्य किया'-इसका अभिप्राय वल्लभी में मिले हुए दोनों परम्परामों के श्रमणसंघ का मागम लेखन कार्य ही इष्ट हो और शान्ति सूरि ने मागम लेखन और पाठ निर्धारण के कार्य में महत्त्वपूर्ण योगदान किया हो।
देखि मौर देववाचक देवद्धि क्षमाश्रमण की गुरु परम्परा का निर्णय करने से पहले यह देख लेना मावश्यक है कि देवदि क्षमाश्रमण ही देववाचक हैं अथवा दोनों भिन्न-भिन्न । यद्यपि यह सर्वविदित है कि देवद्धिगणि क्षमाश्रमण वल्लभी में हुई अंतिम आगमवाचना के सूत्रधार और नन्दीसूत्र के रचनाकार थे, पर नन्दीसूत्र की टीका में प्राचार्य हरिभद्र एवं मलयगिरी ने तथा नन्दीसूत्र की चूरिण में चूरिणकार जिनदास ने नन्दीसूत्र के रचयिता के रूप में दुष्यगरणी के शिष्य देववाचक का उल्लेख किया है।' इससे देववाचक पौर देवदिगणी क्षमाश्रमण के भिन्न-भिन्न होने की भ्रांति हो सकती है। किन्तु विभिन्न ग्रन्थकारों एवं इतिहासकारों के विचारों का अध्ययन करने के पश्चात् हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि देववाचक और देवद्धिगणी क्षमाश्रमण दो नहीं अपितु दो नाम के एक ही प्राचार्य थे।
पूर्वाचार्यों ने वादी, क्षमाश्रमण, दिवाकर और वाचक इन शब्दों को एकार्थवाचक बताया है। पूर्वगत श्रुत के जानकार के लिये इन शब्दों का प्रयोग किया जाता है।
इस दृष्टि से देवद्धिगरणी क्षमाश्रमण और देववाचक दोनों शब्द दो भिन्न व्यक्तिवाचक नहीं होते । यह तो एक निस्संदिग्ध तथ्य है कि देवद्धिगरणी क्षमाश्रमण अपने समय के एक लब्धप्रतिष्ठ महान् गणनायक होने के साथ-साथ एक समर्थ वाचनाचार्य भी थे । संभव है उनके वाचनाचार्य पद की अभिव्यक्ति की दृष्टि से उनके नाम के प्रथम दो अक्षरों- "देव" के साथ वाचक शब्द जोड़ कर "देवद्धिगणी वाचक" के स्थान पर इनका संक्षिप्त नाम देववाचक रख दिया गया हो। देववाचक नाम के साथ ही साथ गणधर के रूप में उनकी अधिक प्रसिद्धि होने के ' (क) क एवमाह - दूष्यगणि शिष्यो देववाचक इति गाथार्थः।
[नन्दी, हारिभद्रीया वृत्ति, पृ० २०] (ख) देयवाचकोऽषिकृताध्ययनविषयभूतस्य ज्ञानस्य प्ररूपणां कुर्वनिदमाह- ..
(वही, पृ० २३] (ग) तत प्राचार्योऽपि देववाचकनामा ज्ञानपंचकं व्याचिख्यासुः..... तीथंकृत्स्तुतिमभिधातुमाह
[श्री मलयगिरीया नन्दीवृत्तिः पत्र २] (घ) दूष्यगणिपादोपसे वि पूर्वान्तर्गतसूत्रार्थधारको देववाचको योग्यविनेयपरीक्षां कृत्वा
सम्प्रत्यधिकृताध्ययन विषयस्य ज्ञानस्य प्ररूपणां विदघाति- [वही, पत्र ६५ (१)] (इ) दूसगरिणसीसो देववावगो साधुजण हियट्ठाए इणमाह- [नन्दी चूणि, पृ० १०] २ वाई य ख मासमरणे, दिवायरे वायगति एगट्ठा । पुव्वगम्मि मुने, एए सद्दा पउजति ।।
[पुरातन प्राचार्य]
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