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प्रार्य दूष्यगणी-वाच०] सामान्य पूर्वधर-काल : प्रार्य दूष्यगणी उनकी सेवा में श्रतज्ञान का अध्ययन करने आया करते थे। श्रुतज्ञान के व्याख्यान में दूष्यगणी इतने समर्थ वाचक थे कि उन्हें व्याख्यान करने में कभी शारीरिक एवं मानसिक थकान का अनुभव नहीं होता था। देवद्धि क्षमाश्रमण ने दूष्यगणी को श्रृतार्थ की खान, प्रकृति से ही मधुरभाषी, तप, नियम, सत्य-संयम आदि गुणों के विशिष्ट साधक एवं अनुयोग में युगप्रधान बताते हुए प्रणाम किया है।'
"प्रशस्त लक्षणों से संयुक्त सुकोमल तलवों वाले आर्य दूष्यगणी के चरण युगल में मैं प्रणाम करता है"२ इन शब्दों में स्थविरावलीकार देवद्धि क्षमाश्रमण ने जो उन्हें प्रणाम किया है, इससे स्पष्टरूपेण यह प्रमाणित होता है कि वे (देवद्धि) आचार्य दूष्यगणी के शिष्य थे और उसी कारण वे उनके लक्षणयुक्त सुकोमल तलवों वाले चरणों से भलीभांति परिचित थे।
कल्पसूत्र की स्थविरावली में संडिल्ल के गुरुभाई की परम्परा में प्रार्य देसीगरणी क्षमाश्रमरण का नाम उपलब्ध होता है। संभव है दृष्यगरणी और देसीगणी ये दोनों नाम एक ही प्राचार्य के हों।
प्रापका विशेष परिचय और काल का स्पष्ट निर्देश उपलब्ध नहीं होता । फिर भी इतना निश्चित है कि वीर निर्वाण की दशवीं शताब्दी का मध्यभाग इनका सत्ताकाल रहा है।
२७ (३२) देवद्धिक्षमाश्रमण-वाचनाचार्य एवं गणाचार्य
भगवान महावीर के धर्म-शासन में हए महान प्राचार्यों में वाचनाचार्य प्रार्य देवद्धि क्षमाश्रमण का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान माना गया है। प्राज से लगभग १५२० वर्ष पूर्व दूरदर्शी प्राचार्य देवद्धिगरणी क्षमाश्रमण ने वल्लभी नगरी में श्रमण संघ का सम्मेलन आयोजित किया। उसमें उन्होंने न केवल आगमवाचना द्वारा द्वादशांगी के विस्मृत पाठों को सुव्यवस्थित-सुसंकलित ऐवं सुगठित ही किया अपितु भविष्य में सदा-सर्वदा बिना किसी प्रकार की परिहानि के पागम यथावत् बने रहें, इस अभिप्राय से एकादशांगी सहित सभी सूत्रों को पुस्तकों के रूप में लिपिबद्ध करवा कर अपूर्व दूरदर्शिता का परिचय दिया। आपके द्वारा किये गये इस अनिर्वचनीय अपूर्व उपकार के प्रति पंचम प्रारक की समाप्ति पर्यन्त अजस्र रूप से चलने वाला प्रभु महावीर का चतुर्विध संघ पूर्णतः ऋणी रहेगा। .
देवद्धि जन्मत: काश्यप गोत्रीय क्षत्रिय थे। प्रापको देवद्धि क्षमाश्रमण और देववाचक, इन दो नामों से सम्बोधित किया जाता है। पाप क्षान्ति, धीरता'प्रत्यमहत्यसारिण, सुसमणवक्खाणकहणनिव्वाणि ।
पयईए महरवारिंग, पयमो पणमामि दूसरण । ४४॥ तवनियमसञ्चसंजम, विणयज्जवखंतिमहबरयाणं। . सीलगुणगहियाणं, अणुप्रोगजुगप्पहोणाणं ॥४८॥ [नंदी स्थविरावली] २ सुकुमालकोमलतले, तेसि पणमामि लक्मरणपसत्ये। . . पाए पावयपीणं, परिच्थ्यसयएहिं परिणवइए ॥४॥
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