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कुमारगुप्त सामान्य पूर्वधर-काल : प्रायं भूतदिन
६७३ (६) व्याघ्रबल-पराक्रमः, (७) गुप्तकुल न्योमशशी और (८) गुप्तकुलामलचन्द्रो (गुप्तवंश के निष्कलंक चन्द्र) । इन सिक्कों से स्पष्टतः विदित होता है कि कुमारगुप्त बड़ा पराक्रमी प्रतापी और लोकप्रिय सम्राट् था। यद्यपि समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त के समान कुमारगुप्त के विजयाभियानों एवं अश्वमेघ का एक भी उल्लेख उपलब्ध नहीं होता तथापि उपरोक्त सिक्कों तथा इसके प्रश्वमेधिक सिक्के से ऐसा प्रतीत होता है कि इसने दिग्विजय करने के पश्चात् अश्वमेध किया । अश्वमेघ के परिचायक सिक्के पर अश्व का चित्र, अश्व के पैरों के बीच में 'अश्वमेध', यूप, महारानी के चित्र आदि के साथ-साथ 'जयतादेव कुमार, जयति दिवं कुमारगुप्तोऽयम्' तथा 'अश्वमेधमहेन्द्रः' अंकित हैं ।
कुमारगुप्त के वीर नि० सं० ६४१ से १८२ तक के ४१ वर्ष के शासनकाल में अन्तिम ५ वर्षों को छोड़कर कोई विशेष राजनैतिक घटना के घटित होने का उल्लेख प्राप्त नहीं होता। वीर निर्वाण सं० ६७७ के पास-पास नर्मदा नदी के तटवर्ती दक्षिणी प्रदेश की पुष्यमित्र' नामक जाति ने कुमारगुप्त के साम्राज्य को उलट देने के दृढ संकल्प के साथ बड़ी शक्तिशाली विशाल सेना लेकर कुमार गुप्त पर आक्रमण किया। दोनों ओर से भीषण युद्ध हुआ। संभवतः इस संघर्ष की उत्पत्ति गुप्तों की दासता के जूड़े को उतार फेंकने अथवा महात्वाकांक्षा के लक्ष्य को लेकर हुई थी। इस सशस्त्र विद्रोह का प्रारम्भ पुष्यमित्रों ने पटुमित्रों, दुर्मित्रों और नर्मदा घाटी के मेकल प्रदेशवासियों की सहायता से किया। इन सब जातियों का सम्मिलित कोषबल एवं सैन्यबल इतना प्रबल था कि पुष्यमित्रों को युद्ध में निरन्तर सफलताएं मिलती गई। कुमारगुप्त की सेना के पैर उखड़ गये । पुष्यमित्रों को दृढ़ विश्वास हो गया कि विजयश्री उनका वरण करने ही वाली है। किन्तु जय-पराजय के उन निर्णायक क्षणों में कुमारगुप्त (प्रथम) के बड़े पुत्र राजकुमार स्कन्दगुप्त ने अपूर्व धैर्य मोर शोर्य के साथ स्थिति को सम्हाला । उसने नई कुमुक के साथ शत्रु सैन्य पर भीषण प्रत्याक्रमण कर पुष्यमित्रों को पराजित किया। इस प्रकार कुमारगुप्त के साम्राज्य की उसके पुत्र स्कन्दगुप्त ने संकट के विकट क्षणों में रक्षा की।
तत्कालीन ऐतिहासिक घटनाचक्र के पर्यालोचन से ऐसा प्रतीत होता है कि कुमारगुप्त के साथ हुए पुष्यमित्रों के युद्ध में वाकाटकों द्वारा पुष्यमित्रों की सहायता की गई होगी। इस अनुमान को वाकाटक नृपति पृथ्वीषेण (द्वितीय) के बालाघाट ताम्रपत्र से बल मिलता है। बालाघाट के ताम्रपत्र में पृथ्वीषण (द्वितीय) ने अपने पिता नरेन्द्रसेन (ई० सन् ४३५ से ४७०) को महाराष्ट्र,
पुष्यमित्रा भविष्यन्ति, पट्टमित्रास्त्रयोदश ॥३७३।। मेकलायां नृपाः सप्त, भविष्यन्ति च सत्तमा ।....३७४॥ [वायुपुराण, प्र. ६६] २ विचलितकुललक्ष्मीस्तम्भनायोक्तेन, नितितलमयनीये येन नीता त्रियामा। समुदितबलकोशान् पुष्यमित्रांश्च जित्वा, मितिपवरणपीठे स्थापितो वामपाद: ॥४॥
[स्कन्दगुप्त का भितरी स्तम्भलेख
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