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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [प्रायं स्कंदिल वाचना ०
वाचना की । जैसा कि एक प्राचीन गाथा में कहा गया है :- "दुर्भिक्ष के समाप्त होने पर प्रार्य स्कन्दिलसूरि ने श्रमरणसंघ को मथुरा में एकत्रित कर अनुयोग प्रारम्भ किया ।" "
आर्य स्कन्दिल के तत्वावधान में आगमों की वांचना हुई और अनुयोग व्यवस्थित किया गया, जो आज भी संघ में प्रचलित है। इस तथ्य की पुष्टि के लिए प्रबल प्रमाण के रूप में नन्दी - स्थविरावलो की निम्नलिखित गाथा पर्याप्त है :
सिमिम प्रोगो पयरइ अज्जावि श्रड्ठभरहम्मि । बहुनयरनिग्गयजसे, ते वंदे खंदिलायरिए ||३३||
अर्थात् जिनके द्वारा संगठित सुव्यवस्थित अनुयोग ( प्रागमपाठ) भाज भी भरतक्षेत्र में प्रचलित है, उन महान यशस्वी आर्य स्कन्दिल को प्रणाम करता है ।
इस गाथा की टीका करते हुए मलयगिरि ने लिखा है
"स्कन्दिलाचार्य के समय में दुष्षमाकाल के प्रभाव से बारह वर्ष का दुर्भिक्ष पड़ा। उस भयंकर दुर्भिक्ष के समय में साधुओं को प्रहार की प्राप्ति दुर्लभ हो गई। इससे पूर्व सूत्रार्थ - ग्रहरण एवं पठित का परावर्तन प्रायः नष्ट हो चुका था । बहुत सा प्रतिशययुक्त श्रुत भी इस काल में विनष्ट हो गया तथा परावर्तन न हो सकने के कारण अंग - उपांगगत श्रुत भी पूर्ण रूप में नहीं रहा ।
जब बारह वर्ष का दुर्भिक्ष समाप्त होने पर सुभिक्ष हुआ तो मथुरा में स्कन्दिलाचार्य की प्रमुखता में श्रमरणसंघ ने एकत्र मिलकर आगम-वाचना प्रारम्भ की । जिस-जिस स्थविर को जो-जो श्रुतपाठ स्मरण था, उसे सुन-सुन कर श्रागमों के पाठ को स्कन्दिलाचार्य ने सर्वानुमति से सुनिश्चित किया । इस प्रकार कालिकश्रुत और पूर्वगत को सम्यग् अनुसन्धान के पश्चात् सुव्यवस्थित किया गया ।
मथुरा में यह संघटना हुई इसलिए इसको माथुरी वाचना कहते हैं और यह उस समय के युगप्रधान स्कन्दिलाचार्य को मान्य थी एवं अर्थरूप से उन्होंने ही शिष्यों को उसका अनुयोग दिया था इसलिए वह स्कन्दिलाचार्य का अनुयोग कहलाता है ।
दूसरे प्राचार्यों का कहना है कि दुर्भिक्ष से कुछ भी श्रुत नष्ट नहीं हुआ " "केवल अनुयोग करने वाले सभी प्रमुख प्राचार्य दुर्भिक्ष के समय में काल के ग्रास बन चुके थे । केवल एक स्कन्दिलाचार्य
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दुभिक्खम्मि पट्टे, पुरणरवि मिलिन समरणसंघाश्रो ।
fuge गो, पवईयो खंदिलो सूरि ।। [पट्टावली समुच्चय, परिशिष्ट ]
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