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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग
[ चन्द्रगुप्त प्रथम
लिच्छवी क्षत्रियों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध के पश्चात् लिच्छवियों की सहायता से चन्द्रगुप्त ने राज्य विस्तार किया । इस तथ्य की पुष्टि अयोध्या, बर्दमान् और गया में मिले सम्राट् समुद्रगुप्त के उन सिक्कों से होती है, जिन पर दुल्हन को अंगूठी भेंट करते हुए दूल्हे का चित्र, एक ओर चन्द्रगुप्त, दूसरी ओर 'लिच्छवय. ' और ' कुमार देवी' अंकित है ।
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चन्द्रगुप्त प्रथम ने किन-किन राजाओं एवं राज्यों को जीतकर उन पर अपना आधिपत्य स्थापित किया, इस सम्बन्ध में कोई अभिलेख अथवा अन्य 'प्रकार की कोई साक्षी उपलब्ध नहीं होती । पुराणों में समुच्चय रूप से गुप्तों के राज्य का उल्लेख उपलब्ध होता है । वायुपुराण में गंगा के निकटवर्ती प्रदेशों, प्रयाग, साकेत और मगध राज्य पर गुप्त राजाओं के आधिपत्य का उल्लेख है ।' इससे ऐसा प्रतीत होता है कि चन्द्रगुप्त प्रथम का उपरोक्त राज्यों पर अधिकार रहा ।
इतिहासज्ञों ने श्रीगुप्त को गुप्त राजवंश का और चन्द्रगुप्त प्रथम को गुप्त साम्राज्य का संस्थापक माना है। इलाहाबाद में एक स्तम्भ अभिलेख सुरक्षित है । इस स्तम्भ के ऊपरी भाग पर मौर्य सम्राट् अशोक का अभिलेख और उसके नीचे समुद्रगुप्त का अभिलेख उट्टंकित है। समुद्रगुप्त के इस स्तम्भ लेख में उट्टं कित कुछ पंक्तियों से ऐसा अनुमान किया जाता है कि चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने कनिष्ठ पुत्र समुद्रगुप्त को सर्वाधिक सुयोग्य समझकर अपनी राज्यसभा के समक्ष उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित करते हुए कहा - "अब तुम इस पृथ्वी की प्रतिपालना करो ।" इस स्तम्भ - अभिलेख में इस बात का भी संकेत है कि चन्द्रगुप्त के इस निर्णय को सुनकर उसकी राज्यसभा स्तम्भित रह गई और समुद्रगुप्त के भाइयों ( तुल्यकुलजाः) के मुख पीले पड़ गये । स्तम्भलेख में खुदे - "घमण्ड पश्चात्ताप में पलट गया ।" इस वाक्य से प्रतीत होता है कि समुद्रगुप्त को राज्य सिंहासन पर अधिकार करने में गृहकलह का भी सामना करना पड़ा। काच ( काचगुप्त ) द्वारा प्रचलित घटिया सोने के सिक्कों से यह अनुमान लगाया जाता है कि समुद्रगुप्त के बड़े भाई काच ने कुछ समय के लिये पाटलिपुत्र के सिंहासन पर अधिकार कर लिया था जिसे थोड़े समय पश्चात् ही समुद्रगुप्त ने अपदस्थ कर दिया ।
चन्द्रगुप्त प्रथम का इससे अधिक परिचय उपलब्ध नहीं होता ।
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अनुगङ्ग प्रयागं च, साकेतं मगधांस्तथा । एताञ्जनपदान् सर्वान्, भोक्ष्यन्ते गुप्तवंशजा ॥ ३८३ ॥
[ वायुपुराण, अनुषङ्गपाद, प्र. CC ]
२ प्रार्थी हीत्युपगुह्य भावपिशुनः रुत्करिणतं रोमभिः, सभ्येपूच्छ्वमितेषु तुल्य कुलजम्लानाननोद्वीक्षितः । स्नेहव्याकुलितेन वाष्पगुरुणा तत्वेक्षिणा चक्षुषा, यः पित्राभिहितो निरीक्ष्य निखिलां पाह्य वमुर्वीमिति ॥ ४ ॥ ॥
का अशोक एवं समुद्रगुप्त का स्तम्भलेख, जो इलाहाबाद में विद्यमान है ।
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