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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [प्रायं गोविन्द वाचना०
किस आगम पर नियुक्ति की रचना की थी। ऐसा अनुमान किया जाता है कि मायं गोविन्द ने सम्भवतः श्राचारांग के शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन पर नियुक्ति की रचना की हो । शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन में स्थावर और सकाय का जीवत्व प्रमाणित किया गया है। चूरिंणकार ने भी - " तेण एगिंदिय जीव साहरणं, गोविंदनिज्जुत्ती कया" - इस वाक्य द्वारा एकेन्द्रिय जीवों के अस्तित्व को स्पष्टतः प्रमाणित करने वाली नियुक्ति का निर्माण करना बताया है । स्वर्गीय मुनि पुण्यविजयजी के अनुसार नियुक्ति के प्रणेता प्राचार्य गोविन्द अन्य कोई नहीं पर जिनको नंदीसूत्र में अनुयोगधर के रूप में और युगप्रधान पट्टावली में २८ वें युगप्रधान होने के साथ माथुरी वाचना के प्रवर्तक आर्य स्कन्दिल से चौथे युगप्रधान बताया गया है, वे ही होने चाहिये। मुनि पुण्यविजयजी ने श्रार्य गोविन्द का सत्ताकाल विक्रम की पूवीं शताब्दी का पूर्वार्ध बताया है । '
श्राद्ध दिनकृत्य की गाथा सं० ६० में जिनशासन को अज्ञान, मोह मोर मिथ्यात्व की. व्याधि का विरेचन बताया है। इसी की टीका एवं बालबोध में क्रमशः आर्य शय्यंभव, खिलातीपुत्र भोर गोविन्द वाचक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किये गये हैं ।
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इन सब तथ्यों से यह प्रमाणित होता है कि प्रार्य गोविन्द अपने समय के महान् प्रभावक वाचनाचार्य हुए हैं ।
२४. (२६) श्रार्य भूतदिन: वाचनाचार्य
आर्य नागार्जुन के पश्चात् वाचनाचार्य प्रार्यं भूतदिन्न हुए। प्रापका विशेष परिचय उपलब्ध नहीं होता फिर भी नन्दो - स्थविरावली और दुष्ष भाकाल श्रमण संघस्तोत्र के अनुसार आपका परिचय इस प्रकार है :
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नन्दी - स्थविरावली में श्रार्य भूतदिन को वाचक नागार्जुन का शिष्य बताया गया है । पर 'दुष्षमाकाल श्री श्रमण संघस्तोत्र' में इनको युगप्रधानाचार्य माना गया है । स्थविरावली में आचार्य देववाचक द्वारा निर्दिष्ट परिचय के अनुसार - " प्राप मृदु-मनोहर उपदेश से भव्यजनों के वल्लभ और अप्रमत्त भाव से दयाधर्म के परिपालक एवं प्रचारक थे। आचारांग प्रादि अंग श्रीर अंगबाह्य विशिष्ट अभ्यास के कारण आप भारतवर्षीय तत्कालीन मुनियों में प्रमुख माने जाते थे। संघ-संचालन की प्रापकी कुशलता बताते हुए देववाचक ने कहा है कि जिन्होंने श्रनेकों योग्य साधुनों को स्वाध्याय श्रौर वैयावृत्य प्रादि कार्यों में नियुक्त किया, ऐसे नागेन्द्र-कुल-वंश की प्रीति करने वाले और उपदेश द्वारा भक्तों के
• वृहत्कल्पभाष्य की प्रस्तावना, भा० ६, पृ० १६-२०
२ श्राद्धदिनकृत्य और प्रात्मनिन्दाभावना, बालबोध, पृ० १८
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