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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाप [मागार्जुन वाचनमा फिर वीर सं० ८४० के लगभग वाचनाचार्य आर्य स्कन्दिल के स्वर्गस्थ होते ही ज्येष्ठ मुनि हिमवान् को वाचनाचार्य नियुक्त किया और हिमवान् के स्वर्ग गमनानन्तर अन्य वाचनाचार्य के अभाव में नागार्जुन को ही युगप्रधानाचार्य के कार्यभार के साथ वाचनाचार्य का पद भी सम्हला दिया गया। ऐसा मानने पर आर्य स्कन्दिल आर्य हिमवान् और नागार्जुन के समकालीन और वाचनाचार्य होने की समस्या सहज ही हल हो सकती है। . नन्दी सूत्र के चूर्णिकार जिनदास मे भी अनुक्रम से वाचक पद प्राप्त करने का यही अर्थ - 'पुरिसारणपुग्विनो' पद से मान्य किया है। जैसा कि उन्होंने कहा है - "सामायिक आदि श्रुतग्रहण से तथा काल की अपेक्षा पूर्वकालीन दीक्षापर्याय प्रोर पुरुषानुक्रम से नागार्जुन ने वाचक पद प्राप्त किया।"
चूरिणकार के इस विवेचन से हमारे अनुमान की स्पष्टतः पुष्टि हो जाती है। आर्य स्कंदिल के प्रकरण में बताया गया है कि जब मथुरा में प्रार्य स्कंदिल ने आगम-वाचना की, उस समय नागार्जुन ने भी दक्षिणापथ के श्रममा संघ को एकत्र कर वल्लभी में वाचना की। नागार्जुन द्वारा प्रानुपूर्वी से वाचकपद प्राप्त करने की बात को मानने पर इसकी संगति भी बराबर बैठ सकती है । - कुछ लेखकों ने नागार्जुन को योगरत्नावली, योगरत्नमाला और अनेकाक्षरी प्रादि ग्रन्थों का रचनाकार माना है। ये दोनों नागार्जुन एक हैं या भिन्न-भिन्न, यह कहना सरल नहीं । विशेषज्ञ इस पर अनुसन्धान करें, यह अपेक्षित है।
युगप्रधान-यन्त्र के अनुसार युगप्रधानाचार्य नागार्जुन के जीवन की प्रमुख घटनाओं का कालक्रम इस प्रकार है :
"नागार्जुन का वीर नि० सं० ७९३ में जन्म, १४ वर्ष की अवस्था अर्थात् वीर नि० सं० ८०७ में दीक्षा, १६ वर्ष तक सामान्य साधुपर्याय का पालन करने के पश्चात् वीर नि० सं० ८२६ में युगप्रधानपद और ७५ वर्ष तक प्राचार्य पद से जिनशासन की सेवा करने के पश्चात् वीर नि० सं० ६०४ में १११ वर्ष की अवस्था में स्वर्गवास ।
प्रार्य स्क्रन्दिल एवं नागार्जुन के समय के राजवंश प्रार्य नागार्जुन के युगप्रधानत्वकाल में गुप्तवंश के महाराजा घटोत्कच का वीर नि० सं० ८४६ तक शासन रहा । उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र चन्द्रगुप्त प्रथम ने गुप्त वंश के राज्य का विस्तार किया।
चन्द्रगुप्त प्रथम घटोत्कच की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र चन्द्रगुप्त (पथम) मगध के राज्यसिंहासन पर ग्रामीन हुअा। इतिहासविदों का अनुमान है कि चन्द्रगुप्त प्रथम का शासनकाल ई० सन :१६ मे ३३५, तदनुसार वीर नि० सं० ८४६ से ८६२ तक रहा। इतिहास के लब्धप्रतिष्ठ पाश्चात्य विद्वान् फ्लीट ने चन्द्रगुप्त द्वारा
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