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प्रायं स्कन्दिल वाचना० ] सामान्य पूर्वघर - काल : श्रार्य स्कन्दिल
परम्परा के प्राचार्य माने गये हैं । हिमवन्त स्थावरावली भी इसी बात की पुष्टि करता है ।
सम्भव है प्रार्य समित द्वारा प्रवर्तित ब्रह्मद्वीपिक शाखा से भिन्न ये कोई
तत्प्रदेशवर्ती साधु-समुदाय के प्रमुख साधु रहे हों। पट्टावली और परम्परा लेखक स्वयं भी कितनी ही जगहों पर पूर्णतः स्पष्ट नहीं हो पाये इसलिये अनेक स्थानों पर नामसाम्य के कारण एक का परिचय उन्होंने दूसरे के साथ जोड़ दिया है, जिससे कतिपय स्थलों पर विपर्यास भी स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता है ।
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स्कन्दिलाचार्य का कार्यकाल वीर नि०सं० ८२३ से ५४० के प्रास-पास का प्रायः सर्वसम्मत रूप से स्वीकार किया गया है पर स्थविरावलीकार ने वि० सं० १५३ मे श्राचार्य स्कन्दिल द्वारा मथुरा में साधु-समुदाय को एकत्रित करने का उल्लेख किया है, जो स्थविरावली में उद्धृत गन्धहस्ती के विवरणकाल को बताने वाली गाथाओं से भी बाधित होता है । प्राचार्य गन्धहस्ती ने स्कन्दिलाचार्य के प्रनुरोध से विक्रम सं० २०० में आचारांग का विवरण पूर्ण किया, इस प्रकार का उल्लेख हिमवन्त स्थविरावली में उद्धत गाथाओं में किया गया है। संभव है लिपिदोष अथवा दृष्टिदोष 'विक्रमार्कस्य त्रिशताधिक त्रिपंचाशत संवत्सरे' इस पद को - विक्रमार्कस्यैकशताधिक त्रिपंचाशत संवत्सरे - ' समझ लिया गया हो। इस सम्बन्ध में प्राचीनतम प्रति से निर्णय किया जा सकता है । इस प्रकार आर्य स्कन्दिल का कार्यकाल वीर नि० सं० ८२३ के पश्चात् का मानने पर ही प्रागे के घटनाक्रम hat fनर्विरोध संगति बैठ सकती है। मेरुतुंग की विचारश्रेणी में भी आर्य स्कन्दिल का समय वीर नि० सं० ८२३ ही दिया हुआ है । मेरुतुरंग ने स्पष्ट लिखा है कि विक्रम से ११४ वर्ष पश्चात् श्रार्य वज्रस्वामी हुए और प्रार्य व स्वामी से २३६ वर्ष पश्चात् श्रार्य स्कन्दिल हुए।' वीर निर्वारण से ४७० वर्ष पश्चात् विक्रम संवत् चला और उससे ३५३ वर्ष पश्चात् आर्य स्कन्दिल हुए। इस प्रकार आर्य स्कन्दिल का समय वीर नि० सं० ८२३ ठीक बैठता है ।
यह समय बड़ा ही विषम समय था । एक ओर सौराष्ट्र में बौद्धों और जैनों के बीच संघर्ष चल रहा था तो दूसरी ओर मध्य भारत में हूरणों के साथ गुप्तों का भयंकर युद्ध चल रहा था। उसी विषम समय में १२ वर्ष का भीषण दुष्काल पड़ा और उस दीर्घकालीन दुष्काल ने भयंकर संघर्षों से पूर्ण उस संक्रान्तिकाल की विभीषिका को और अधिक बढ़ा दिया। इस प्रकार के संकटपूर्ण समय में जैन मुनियों और विशेषतः श्रुतधरों की संख्या घटते घटते प्रति न्यूनं रह गई । फलतः आगम-विच्छेद की स्थिति आ चुकी थी। इस प्रकार के अति विकट समय में सुभिक्ष होने पर वी० नि० सं० ८३० से ८४० के मध्यवर्ती किसी समय में स्कन्दिल सूरि ने उत्तर-भारत के मुनियों को मथुरा में एकत्रित कर आगम
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यतः श्री विक्रमात् ११४ वर्षेर्वचस्वामी, तदनु २३६ वर्षे: स्कन्दिल:..
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[मेरुतुंगीया विचारश्रेणी ]
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