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सातवां निह्नव गोष्ठामाहिल] सामान्य पूर्वधर-काल : पाय रेवतीनक्षत्र परिवर्तन की स्थिति को पार कर जाता है तथा फलभोग के पश्चात् ही जिस कर्म से छुटकारा हो सकता है, उस कर्मबन्ध को निकाचित बन्ध कहा है।
बद्ध, बद्ध-स्पृष्ट और निकाचित कर्म के बन्ध को सरलता से समझने के लिये सूचिका का दृष्टान्त दिया जाता है। बद्ध कर्म का आत्मा के साथ डोरे से लिपटी सुई की तरह सम्बन्ध बताया गया है। जिस प्रकार स्वल्पतर प्रयास मात्र से धागे से लिपटी हुई सुई को धागे से पृथक किया जा सकता है, उसी प्रकार आत्मा को बद्ध कर्म से सहज ही वियोजित किया जा सकता है। बद्ध-स्पृष्ट कर्म को लोहे के पत्र से प्राबद्ध. सुई की तरह बताया गया है। जिस प्रकार लोहपत्र से प्रबद्ध सूचिका को पृथक करने में विशेष प्रयास की आवश्यकता रहती है, उसी प्रकार बद्ध-स्पृष्ट कर्मों को प्रात्मप्रदेशों से वियोजित करने में थोड़े पौरुष की अावश्यकता रहती है। तीसरे निकाचित कर्मबन्ध की, सूचिकाओं के उस समूह से तुलना की गई है, जिसे तपाकर धन-प्रहार से संपृक्त कर दिया गया हो । जिस प्रकार तपाकर घरण की चोट से परस्पर मिलाई गई सूचिकाओं को पुनः गलाकर सांचे में ढालने से ही पूर्व रूप में लाया जा सकता है उसी प्रकार निकाचित कर्म के फलभोग के अनन्तर ही उसे प्रात्मप्रदेशों से पृयक् किया जा सकता है।"
. विन्द्य मुनि द्वारा किये गये कर्मबन्ध विषयक उपरोक्त विवेचन को सुनकर गोष्ठामाहिल ने कहा- "मुने! यदि कर्म की इस प्रकार की व्याख्या करोगे कि जीवप्रदेशों के साथ अन्योन्य अविभक्त रूप से कर्म का बन्ध होता है, तो उस दशा में प्रात्मा कभी कर्मबन्ध से मुक्त नहीं हो सकेगा। कंचुकी और पुरुष के समान प्रात्मा के साथ कर्म का बन्ध होता है। कंचुकी पुरुष को स्पृष्ट कर रहता है बद्धं करके नहीं। ठीक उसी प्रकार कर्म भी आत्मा के साथ दूध पानी की तरह घुलमिल कर बद्ध नहीं होते, केवल स्पृष्ट होकर ही रहते हैं।"
. गोष्ठामाहिल की बात सुनकर विन्द्य ने कहा - "हमको गुरु ने इसी प्रकार बताया है।" गोष्ठामाहिल ने कहा- "वह स्वयं नहीं जानते तो क्या व्याख्यान करेंगे?"
इस पर सरलमना विन्द्य मुनि शंकित हुए और प्राचार्य के चरणों में पहुंचकर कर्मबन्ध विषयक उपरोक्त विवेचन एवं गोष्ठामाहिल का अभिमत सुनाते हुए उन्होंने स्पष्टीकरण चाहा कि वस्तुतः सूत्र का अर्थ क्या है ?
दुर्बलिकापुष्यमित्र ने कहा - "सौम्य ! जो तुम कहते हो वह ठीक है। एतद्विषयक गोष्ठामाहिल का कथन ठीक नहीं है। उसने, प्रात्मा के साथ बद्ध,. बढस्पृष्ट मौर निकाचित सम्बन्ध मानने पर जीव से कर्म के पृथक् न होने की बात रखी, वह प्रत्यक्ष विरोधिनी, है । प्रायुकर्म का अन्त अथवा वियोजन मरण के रूप में प्रत्यक्षा है। गोष्ठामाहिल का यह कथन भी ठीक नहीं है कि अन्योन्य प्रविभाग से रहे हुए का वियोग नहीं होता। एक रूप से मिले हुए दूध-पानी का उपाय विशेष से पृथक्करण देखा जाता है। लोहगोलक और अग्नि का पविभक्त सम्बन्ध भी
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