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यापनीय संघ] सामान्य पूर्वघर-काल : पार्य रेवती नक्षत्र
"स्त्रीमुक्ती यापनीयतन्त्रप्रमारणम् - यथोक्त यापनीयतन्त्रे - "रणो खलु इत्थी अजीवो, ण यावि अभव्वा, रण यावि दंसरण विरोहिणी, गो प्रमाणुसा, गो प्रणारि (य) उप्पत्ती, णो असंखेज्जाउया, गो प्राइकरमई, णो ण उवसन्तमोहा, णो ण सुद्धाचारा, णो असुद्धबोंदी, णो ववसायवज्जिया, णो अपुवकरण विरोहिणी, पो गवगुणदाणरहिया, णो अजोग्गा लद्धीए, गो अकल्लाण भायणं ति कहं न उत्तमधम्मसाहिगत्ति । [ललित विस्तरा, पृ० ४०२]
यापनीय संघ का कर्नाटक और उसके पड़ोस-पड़ोस के क्षेत्रों में बड़ा प्रभाव था । इस तथ्य की कदम्बवंश एवं अन्य राजवंशों के राजाओं द्वारा ई० सन् ४३५४७५ के मासपास यापनीय संघ को दिये गये भूमिदान के दानपत्र साक्षी देते हैं।'
यापनीय संघ का जो थोड़ा बहुत परिचय विभिन्न ग्रन्थों से उपलब्ध होता है, उससे यह प्रमाणित होता है कि यह संघ पूर्वकाल में एक प्रभावशाली संघ रहा है। कागवाड़ा जैनमंदिर के भौहरे में विद्यमान शक सं० १३१६ (वि० सं० १४५१) के शिलालेख में यापनीय आचार्य नेमिचन्द्र को 'तुलुवराज्यस्थापनाचार्य' की पदवी से विभूषित बताया गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि विक्रम की १५वीं शताब्दी तक यापनीय संघ राजमान्य सम्प्रदाय रहा है। ऐसी स्थिति में यदि प्रयास किया जाय तो यापनीय संघ और उसके साहित्य के सम्बन्ध में विपुल सामग्री एकत्रित की जा सकती है। आशा है शोधप्रिय इतिहासविद् इस दिशा में अवश्य प्रयास करेंगे।
- २१. प्रार्य वज्रसेन - युगप्रधानाचार्य
वीर नि० सं० ४६२ में आर्य वज्रसेन का जन्म हुआ। आपने ६ वर्ष की वय में वीर नि० सं० ५०१ में श्रमण-दीक्षा ग्रहण की। ११६ वर्ष तक सामान्य साधु पर्याय में रहते हुए आपने आगमों का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया। वीर नि० सं० ६१७ में आर्य दुर्बलिका पुष्यमित्र के पश्चात् आप युगप्रधान पद पर अधिष्ठित किये गये।
मापके जन्मस्थान एवं कुल आदि का कोई परिचय उपलब्ध नहीं होता फिर भी इतना असंदिग्ध रूप से कहा जा सकता है कि आपने आर्य वज्र से पूर्व प्रार्य सिंहगिरि के पास दीक्षा ग्रहण की थी। विशिष्ट प्रतिभा और विद्यातिशय सम्पन्न होने के कारण प्रार्य वज्र को आर्य सिंह ने अपनी विद्यमानता में ही माचार्य पद का कार्यभार सम्हला दिया और स्वर्गवास के समय उन्हें विधिवत् प्राचार्यपद प्रदान किया।
सम्भव है आर्य वज्र के ज्ञानातिशय के सम्मान हेतु वज्रसेन ने उनकी विद्यमानता में प्राचार्यपद स्वीकार नहीं किया हो।
आवश्यक चूणि आदि के उल्लेख से इनका आर्य वज्र के साथ गुरु-शिष्य का सा सम्बन्ध प्रतीत होता है। जैसा कि आर्य वज्र द्वारा ५०० साधुओं के साथ ' दाण्डेकर की - History of the Guptas, page 87-91
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