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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [रुद्रसेन प्रथम ९. नरेन्द्रसेन
" , ४३५ से ४७० १०. पृथ्वीषेण द्वितीय
,,, ४७० से ४८५ ११. देवसेन
, , ४८५ से ४६० १२. हरिषेण
,,, ४६० से ५२० वाकाटकों की वत्सगुल्म शाखा :१. विन्ध्यशक्ति
५. प्रवरसेन द्वितीय २. प्रवरसेन प्रथम
६. (अज्ञात नामा) ३. सर्वसेन
७. देवसेन ४. विन्ध्यसेन (विन्ध्यशक्ति द्वितीय) ८. हरिषेण
२० मार्य ब्रह्मद्वीपिकसिंह - वाचनाचार्य
२४. मार्य सिंह - युगप्रधानाचार्य प्राचार्य रेवतीनक्षत्र के स्वर्गगमन पश्चात् आर्य ब्रह्मद्वीपकसिंह वाचनाचार्य हुए । आपकी श्रमण-दीक्षा नन्दीसूत्र स्थविरावली के अनुसार अचलपुर में हुई। प्राचार्य देवद्धि ने नन्दीसूत्र की स्थविरावली में 'बंभगदीवगसीहे इस पद से आपको ब्रह्मद्वीप का सिंह एवं कालिक श्रुत की व्याख्या करने में अत्यन्त निपुण, धीर और उत्तम वाचक पद को प्राप्त करने वाला बताया है।
__ आर्य सिंह के नाम के साथ ब्रह्मद्वीपक विशेषण से प्राचार्य देवद्धि ने सिंह नाम के अनेक मुनियों से प्रार्य सिंह को भिन्न बताने के लिए इन्हें 'ब्रह्मद्वीप का सिंह इस नाम से अभिहित किया है । ब्रह्मद्वीप शब्द को देख कर सहज ही ब्रह्मद्वीपिकी शाखा की स्मृति हो सकती हैं और ऐसा अनुमान होना भी स्वाभाविक है कि आर्य सिंह ब्रह्मद्वीपिका शाखा के मुनि होंगे। किन्तु ज्यों ही इनका रेवतीनक्षत्र के साथ गुरु-शिष्य का सम्बन्ध और देवद्धि द्वारा कथित वाचकपदधरों का ध्यान आता है, तब विचार आता है कि ये प्राय सिंह वाचकवंश के ही विशिष्ट प्राचार्य दोने चाहिये। क्योंकि युगप्रधान परम्परा में रेवतीमित्र के शिष्य ब्रह्मद्वीपकसिंह का नहीं अपितु सिंह का उल्लेख मिलता है। कल्प स्थविरावली में स्थविर पार्य धर्म के शिष्य प्रार्य सिंह का नाम अवश्य उपलब्ध होता है। यदि. उन्हें ब्रह्मद्वीपिकी शाखा के प्राचार्य मान कर स्कन्दिलाचार्य का गुरु माना जाय तो समय का मेल बैठ सकता है। परन्तु नन्दीसूत्र की चूणि, वृत्ति' प्रादि में स्कंदिल को स्पष्ट रूप से वाचक प्राय सिंह के शिष्य के रूप में मान्य किया है।
___सम्भव है ब्रह्मद्वीपकसिंह का वाचनाचार्यकाल भी वीर नि० की ८ वीं । शताब्दी का मन्तिम काल रहा हो। दुष्षमाकालश्रमसंघस्तोत्र के अनुसार युगप्रधान प्राचार्य सिंह का काल इस प्रकार मान्य किया गया है :गरेषु नित-प्रसियनी देवी से बनगर निर्मतवावः तान वन्द सिमांचकनियान् .
निन्दी स्वविरागनी, हारिमायावृत्ति, गा.]
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