________________
६४६
जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [गणाचार्य मानतुंग कमरों के द्वार स्वतः ही खुल गये और प्राचार्य मानतुंग के सभी बन्धन कट गये । बन्धन-मुक्त प्राचार्य पूर्वाचल से उदीयमान भास्कर की तरह राजसभा में जा उपस्थित हुए।
इस प्रकार मानतुंगसूरि के त्याग-तप और प्रतिभा के चमत्कार से प्रभावित राजा हर्ष प्रापका परम भक्त बन गया। प्राचार्य मानतुंग ने भी वीतराग-मार्ग का उपदेश सुना कर अपने स्थान की ओर प्रस्थान किया। उनके द्वारा निर्मित "भक्तामरस्तोत्र" आज भी जैन समाज में बड़ी ही श्रद्धा-भक्ति के साथ घर-घर में गाया जाता है।
___ "भयहरस्तोत्र" भी प्राचार्य मानतुंग की रचना मानी जाती है। चिरकाल तक जैनशासन का उद्योत कर अपने सुयोग्य शिष्य गुणाकर को आचार्य पद पर नियुक्त कर संलेखनापूर्वक आप वीर नि० सं० ७५८ में स्वर्गस्थ हुए।
तपागच्छ पट्टावली में बताया गया है कि प्राचार्य मानतुंग के पश्चात क्रमशः (२१) श्री वीरसूरि, (२२) श्री जयदेवसूरि, और (२३) देवानन्दसूरि गणाचार्य हुए।
इन प्राचार्यों का विशेष परिचय उपलब्ध नहीं होने के कारण यहां इनकी नामावली मात्र प्रस्तुत की गई है।
युगप्रधानाचार्य प्रार्य सिंह के काल में गुप्त राजवंश का अभ्युदय
पुण्यभूमि भारत को विदेशी शासकों की दासता से उन्मुक्त करने का जो देशव्यापी अभियान भारशिवों ने प्रारम्भ किया था, उसमें उन्होंने उल्लेखनीय सफलता प्राप्त कर एक विशाल भारतीय साम्राज्य की स्थापना की। भारशिवों द्वारा प्रारम्भ किये गये स्वातन्त्र्य-संग्राम को वाकाटक राजवंश ने और अधिक व्यापक बनाया और उनके पश्चात् गुप्त राजवंश ने उसे अन्तिम रूप से सम्पन्न कर अफगानिस्तान, काश्मीर, नेपाल, आसाम और बंगाल से लेकर समुद्रपर्यन्त समस्त दक्षिण-पश्चिमी प्रदेशों तक भारत की चप्पा-चप्पा भूमि को एक सुदृढ़ शासनसूत्र में बांधकर सुविशाल गुप्त साम्राज्य की संस्थापना की।
सभी इतिहासकारों एवं पाश्चात्य विद्वानों ने यह अभिमत व्यक्त किया है कि गुप्त साम्राज्य के समय में भारत ने चहुंमुखी प्रगति की। इतिहासकारों का ' स्वयमुद्घटिते द्वारयन्त्रे संयमसंयतः । सदानुच्छखल : श्रीमानुच्छ खलवपुर्वभौ ।।१४१॥ [प्रभावक चरित्र, पृ० ११६] कतिपय कथाकारों द्वारा यह उल्लेख किया गया है कि प्राचार्य मानतुंग को एक के अन्दर एक करके ४४ कोटरियों में अलग-अलग ४४ ताले लगा कर बन्द किया गया। प्राचार्य मानतुंग प्रादिनाथस्तोत्र के एक-एक श्लोक की रचना करते गये प्रौर कोटरियों के ताले व द्वार क्रमशः स्वतः ही खुलते गये । राजा हर्ष का समय वीर निर्वाण की १२वीं शताब्दी है। हर्ष की मृत्यु ई० सन् ६४८ में हुई। ऐसी स्थिति में प्राचार्य मानतुंग हर्ष के समकालीन नहीं हो सकते। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रभावक चरित्रकार ने यहाँ राजा का नाम उल्लेख करने में स्खलना की है।
-सम्पादक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org