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सामान्य पूर्वघर-काल : भार्य सिह युगप्र०
१४५ वीर नि० सं० ७१० में जन्म, १८ वर्ष पश्चात् ७२८ में दीक्षा, २० वर्ष सामान्य साधु-पर्याय और ७८ वर्ष युगप्रधानकाल पूर्ण कर वोर नि० सं० ८२६ में स्वर्गवास ।
वाचक आर्य सिंह को युगप्रधान सिंह से भिन्न मानने पर आर्य स्कंदिल का कार्यकाल २६ वर्ष अधिक होता है जबकि युगप्रधान आर्य सिंह को ही वाचक प्रार्य सिंह मानने से प्रार्य स्कन्दिल का कार्यकाल वीर नि० सं० ८२६ में प्राता है। इतिहास के विशेषज्ञ विद्वान् तथ्यों को ध्यान में लेकर निर्णय करें कि वाचक आर्य सिंह और युगप्रधान आर्य सिंह भिन्न प्राचार्य हैं अथवा एक।
२०: गणाचार्य मानतुंग . प्राचार्य मानदेव के पश्चात् प्राचार्य मानतुंग बड़े ही प्रभावक प्राचाय हुए हैं। ये वाराणसी के ब्रह्मक्षत्रिय श्रेष्ठी धनदेव के पुत्र बताये गये हैं। उस समय वाराणसी में नग्न जैन मुनियों का आगमन हुमा। मानतुंग उनका उपदेश सुन कर भोगवासना से विरक्त हुए। मुनि चारुकीर्ति ने मानतुग की इच्छा देख कर माता-पिता की अनुमति से उसे मुनिधर्म में दीक्षित किया और दीक्षानन्तर मानतुंग का नाम महाकीत्ति रखा। कहा जाता है कि मुनि महाकोत्ति को अपनी बहिन द्वारा कमण्डलु के जल में असावधानी से रहे हुए जलीय जन्तु दिखाये जाने पर प्रेरणा हुई और उन्होंने प्राचार्य अजीतसिंह के पास श्वेताम्बरी दीक्षा स्वीकार की।
एक बार राजा हर्ष ने मयूर और बाण की विद्वत्ता. एवं चमत्कारपूर्ण भक्ति को देख कर प्राचार्य मानतुंग को सादर निमन्त्रित किया । मन्त्री के आग्रह पर शासन-प्रभावना का सुअवसर जान कर प्राचार्य मानतुग राजभवन पधारे । महाराज हर्ष ने भी अभ्युत्थानपूर्वक अभिवादन कर कहा- "महात्मन् ! भूमण्डल पर ब्राह्मण कितने अतिशयसम्पन्न हैं। एक ने सूर्य की प्राराधना से अपने अंग का कुष्ट रोग मिटा दिया जब कि दूसरे ने (बारण ने) चण्डिका की उपासना से कटे हाथ पैर पुनः प्राप्त कर लिये। यदि आपकी भी शक्ति हों तो कुछ चमत्कार बताइये।"
- राजा की बात सुन कर प्राचार्य मानतुंग ने कहा - "भूपाल ! हम गृहस्थ नही हैं, जो धन, धान्य, पुत्र, कलत्र आदि के लिये राजरंजन आदि किया करें। परन्तु शासन का उत्कर्ष ही हमारा कार्य है।"
मुनि की बात सुन कर राजा ने कहा- "इनको बेड़ियों से जकड़ कर अन्धेरे कोठों में बन्द कर दिया जाय।"
राजपुरुषों ने ४४ लोहमय बन्धनों से प्राचार्य मानतुंग को जकड़ कर अन्धेरे कमरों में बन्द कर ताले लगा दिये। प्राचार्य मानतुंग ने बिना किसी प्रकार के क्षोभ के एकाग्र मन से भगवान् श्री.ऋषभदेव की स्तुति रूप भक्तामर स्तोत्र की रचना प्रारम्भ की। स्तोत्र के ४४ श्लोक पूरे होते-होते ताले पौर
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