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यापनीय संघ] सामान्य पूर्वधर-काल : आर्य रेवती नक्षत्र
यापनीय प्राचार्य शाकटायन अपरनाम 'पाल्यकीति' द्वारा रचित 'ममोघवृत्ति', 'स्त्रीमुक्ति-प्रकरण', 'केवलि-भुक्ति प्रकरण', यापनीय आचार्य अपराजित द्वारा भगवती 'पाराधना' पर लिखी गई विजयोदया टीका आदि ग्रन्थ प्राज भी उपलब्ध हैं। स्वर्गीय दिगम्बर विद्वान् श्री नाथूराम प्रेमी ने भगवती 'पाराधना' के रचयिता शिवार्य को यापनीय प्राचार्य और उनकी रचना भगवती 'पाराधना' को प्रमाण पुरस्सर यापनीय संघ का धर्मग्रन्थ सिद्ध करते हुए लिखा है कि मूलाराधना की अनेक गाथाएं दिगम्बर मान्यता से मेल नहीं खातीं और उसमें उद्त कल्पव्यवहार आदि श्रुतशास्त्र, अधिकांश गाथाएं एवं मेतार्य मुनि का पाख्यान उसी रूप में दिये गये हैं, जिस रूप में कि श्वेताम्बर परम्परा में मान्य हैं ।'
शाकटायन की अमोघवत्ति में दिये गये अनेक उदाहरणों से यह प्रमाणित होता है कि यापनीय संघ श्वेताम्बरों के प्रागमग्रन्थों, अावश्यक, छेदसूत्र, नियुक्ति, दशवकालिक आदि को अपने प्रामाणिक धर्मग्रन्थ मानता था ।२
यापनीय प्राचार्य अपराजित ने जिस प्रकार अपने यापनीय सम्प्रदाय के धर्मग्रन्थ भगवती 'पाराधना' पर 'विजयोदया' नाम की टीका की रचना की, उसी प्रकार उन्होंने 'दशवकालिक' सूत्र पर भी 'विजयोदया' नाम की टीका की रचना की थी। इसका उल्लेख स्वयं अपराजित ने भगवती 'पाराधना' की गाथा संख्या ११९७ की अपनी 'विजयोदया' टीका में निम्नलिखित शब्दों में किया है :
___'दशवकालिक टीकायां श्री विजयोदयायां प्रपंचिता उद्गमादि दोषा इति नेह प्रतन्यते'- अर्थात् उद्गमादि दोषों का दशवकालिक की टीका में वर्णन कर दिया गया है अतः यहां पिष्टपेषण नहीं किया जा रहा है। यापनीय प्राचार्य अपराजित का ही दूसरा नाम विजयाचार्य था और उन्होंने ही भगवती 'आराधना' तथा दशवकालिक की 'विजयोदया' टीकाएं लिखीं, इस बात की पुष्टि पं० पाशाधर द्वारा 'अनगार प्राभृत टीका' के पृष्ठ ६७३ पर लिखे गये इस वाक्य से होती है :- 'एतच्च श्रीविजयाचार्यविरचितसंस्कृतमूलाराधनटीकायां सुस्थितसूत्रे विस्तरतः समर्थितं दृष्टव्यम् ।
___ इन सब उल्लेखों से सिद्ध होता है कि यापनीय संघ भी आचारांगादि उन सभी भागमों को अपने धर्मग्रन्थों के रूप में मानता था, जो श्वेताम्बर परम्परा में मान्य हैं और जिन्हें दिगम्बर परम्परा विलुप्त हुआ मानती है । उपरोक्त तथ्यों से यह भी अनुमान किया जाता है कि यापनीय भाचार्यों ने दशवकालिक की तरह अन्य भागमों पर भी टीकाओं की रचनाएं की होंगी। अपराजित ने स्थान स्थान ' जैन साहित्य और इतिहास (श्री नाथूराम प्रेमी), पृ. ६८ से ७३ २ (क) एतमावश्यकमध्यापय । इयमावश्यकमध्यापय। [ममोषवृत्ति १-२-२०३-४] (ख) भवता खलु छेद-सूत्रं वोढव्यम् । निर्युक्तीरधीष्य नियुक्तीरधीते।
[वही ४-४-११३-४.] (ग) कालिकसूत्रस्यानध्यायदेशकालाः पठिताः ।
[वही ३-२-४७] (१) प्रथो अमाश्रमरणस्त ज्ञानं बीयते [पही १-२-२०१]
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