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६२० . जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मार्य वयसेन-युगप्र. अनशन करने से पूर्व मावो दुर्भिक्ष की समाप्ति के पूर्वलक्षण के रूप में सोपारक के श्रेष्ठी जिनदत्त के यहां बहुमूल्य अन्न में विष मिलाने की वज्रसेन को दी गई पूर्व-सूचना से प्रमाणित होता है ।
इस प्रकार दीक्षा-पर्याय से कनिष्ठ होने पर भी ज्ञानपर्याय की ज्येष्ठता एवं श्रेष्ठता की दृष्टि से प्रार्य वज्र ही दश पूर्वधर होने के कारण प्राचार्य पद के लिए सर्वाधिक योग्य माने गये हों । वीर नि० सं०५८४ में प्रार्य वषसेन गणाचार्य घोषित किये गये और दश से कुछ कम पूर्व के ज्ञाता पार्य रक्षित वज के पश्चात वाचनाचार्य और युगप्रधानाचार्य नियुक्त किये गये।
ऐसा प्रतीत होता है कि प्रार्य वनसेन संघ-व्यवस्था के कार्यों में कुशल एवं प्रतिभाशाली होकर भी आर्य वन आदि के समान पूर्वज्ञान के विशेषज्ञ नहीं थे। इसी कारण आर्य रक्षित के पश्चात् पूर्वज्ञानी दुर्बलिकापुष्यमित्र को युगप्रधानाचार्य पद पर नियुक्त करना उपयुक्त माना गया और उस समय तक वनसेन गणाचार्य पद का सुचारू रूप से संचालन करते रहे। १२ वर्ष के दुष्काल के अन्त में जब विहारक्रम से अनेक क्षेत्रों में विचरण करते हुए प्रार्य वचसेन सोपारक नगर में पधारे तब वहां के श्रेष्ठी जिनदत्त और श्रेष्ठिपत्नी ईश्वरी ने अपने चारों पुत्रों के साथ वीर नि० सं० ५९२ में मार्य वज्रसेन के पास श्रमणदीक्षा ग्रहण की।
जिनदत्त के चार पुत्रों में से नागेन्द्र से नागेन्द्रगच्छ, नाइली शाखा, चन्द्रमुनि से चन्द्रकुल, विद्याधर मुनि से विद्याधर कुल तथा निर्वृत्ति मुनि से निर्वृति कुल- इस प्रकार ये चार मुख्य कुल प्रकट हुए।
__ श्वेताम्बर परम्परा की मान्यतानुसार वज्रसेन के समय में ही वीर नि० सं० ६०६ में प्राचार्य कृष्ण के शिष्य शिवभूति से दिगम्बर मत का प्रादुर्भाव हुआ। इसका विस्तृत परिचय "संप्रदायभेद" नामक शीर्षक के नीचे दिया जा चुका है।
वीर नि० सं० ६१७ में दुर्बलिका पुष्यमित्र के स्वर्गवासानन्तर, मार्य वषसेन युगप्रधानाचार्य पद पर नियुक्त हुए। तीन वर्ष तक सुचारू रूप से युगप्रधानाचार्य पद से जिनशासन की सेवा कर आपने वीर नि० सं० ६२० में १२८ वर्ष की सुदीर्घायु पूर्ण कर स्वर्गारोहण किया।
१५. प्रायं चन्द्र - गणाचार्य आर्य वज्र के स्वर्गगमन के पश्चात् भारद्वाज गोत्रीय पार्य वषसेन एक बार विहारक्रम से सोपारक नगर पधारे। वहां पर सल्हड़ गोत्रीय श्रेष्ठी जिनदत्त अपनी पत्नी ईश्वरी एवं परिवार के साथ रहता था। संयोगवश आर्य वनसेन भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए श्रेष्ठी जिनदत्त के घर पहुंचे। उस समय दुष्काल का प्रकोप अपनी चरम सीमा पर पहुंच चुका था। खाद्यान्नों का सर्वत्र पूर्ण प्रभाव था। अतुलं सम्पत्ति के होते हुए भी धान्याभाव में भूख से तड़प-तड़प कर अपने कुटुम्ब के मरने की कल्पना से जिनदत्त सिहर उठा। अपनी पत्नी से परामर्श के
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