________________
प्रार्य चन्द्र-गणाचार्य ] सामान्य पूर्वधर - काल : प्रार्य रेवती नक्षत्र
६२३
प्रांचलगच्छ, धर्मघोषगच्छ, आदि ८४ गच्छों को वीर नि० सं० ६११ में हुए ८४ गच्छों से निश्चित रूप से पृथक् मानना होगा। क्योंकि इन ८४ गच्छों में से अनेक गच्छ प्रशस्तियों एवं अन्य उल्लेखों के आधार पर वीर नि० सं० ६११ से कई शताब्दियों पश्चात् उत्पन्न हुए सिद्ध होते हैं। इस प्रकार वीर निर्वारण सं० ६११ में ८४ गच्छों की उत्पत्ति की बात को सही मानने की दशा में गच्छों की संख्या ८४ के स्थान पर १६८ माननी होगी, जिसका कि औचित्य किसी भी दशा में सिद्ध नहीं किया जा सकता। वीर नि० सं० ६११ में जो ८४ गच्छों की उत्पत्ति की बात कही जाती है, उसे इस आधार पर भी विश्वसनीय नहीं माना जा सकती कि उन ८४ गच्छों में से किसी एक गच्छ का नाम भी कहीं उपलब्ध नहीं होता ।
इन सब तथ्यों पर विचार करने से ऐसा प्रतीत होता है कि कालान्तर में उत्पन्न होने वाले ८४ गच्छों का स्रोत चन्द्रगच्छ को बता कर इसका महत्व बढ़ाने की दृष्टि से इस प्रकार का उल्लेख किया गया हो ।
तपागच्छ पट्टावली में श्रापका जन्म वीर नि० सं० ५७६ में, दीक्षा ६१३ में, ७ वर्ष गुरू की सेवा करने और २३ वर्ष तक गरणाचार्य पद से शासन की सेवा करने एवं वीर नि० सं० ६४३ में स्वर्गस्थ होने का उल्लेख किया गया है' पर तत्कालीन घटनाचक्र के पर्यवेक्षण से एवं सोपारक में दुर्भिक्ष के अन्त में प्रार्य वज्रसेन के पास आपके दीक्षित होने के उल्लेख को देखते हुए वीर नि० सं० ५६२ में आपकी दीक्षा होना संगत प्रतीत होता है । इसी प्रकार तपागच्छ पट्टावली के उपरोक्त उल्लेखानुसार ३७ वर्ष की अवस्था में प्रापके द्वारा दीक्षा ग्रहण करना माना गया है, वह भी ठीक प्रतीत नहीं होता । "जैन परम्परा नो इतिहास" नामक ग्रन्थ में त्रिपुटी ( मुनित्रय) ने आपके वी० नि० सं० ५६२ में दीक्षित होने और ६५० में स्वर्गस्थ होने का उल्लेख किया है ।
यदि गरणाचार्य चन्द्र की पूर्णायु ६७ वर्ष और स्वर्गस्थ होने का समय वीर नि० सं० ६४३ सही मान लिया जाय तो उस दशा में उनके जन्म, दीक्षा, प्राचार्यपद प्रादि का समय निम्नलिखित रूप से अनुमानित किया जाना पर्याप्तरूपेण संगत और उचित होगा ।
जन्म वीर नि० सं० ५७६, दीक्षा ५६३, गणाचार्य पद वीर निं० सं० ६२० में और स्वर्गारोहण वीर नि० सं० ६४३ में ।
चैत्यवास
आर्य सुधर्मा से सामंतभद्रसूरि के पहले के समय तक जैन मुनि अधिकांशतः वनों एवं उद्यानों में ही निवास करते रहे, जैसा कि निरयावलिका सूत्र में सुधर्मा स्वामी के गुरणशील उद्यान में अवग्रह लेकर विचरने का उल्लेख मिलता है ।
तपागच्छ पट्टावली, स्वोपज्ञ वृत्ति सहित (प० कल्याणविजयजी), पृ० ७६
२ निरयावलिका, १, अ० १ सू० २
1
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org