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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मार्य नागेन्द्र है।' इससे भी प्रतीत होता है कि चन्द्रमुनि के ज्येष्ठ गुरुबन्धु नागेन्द्र ही श्वेताम्बर आचार्य के रूप से दिगम्बर परम्परा में चर्चित होते रहे हैं।
नागहस्ती परम्परा-भेद होने से पूर्व के प्राचार्य होने के कारण दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में उन्हें कहीं पर भी श्वेताम्बर विशेषरण से अभिहित नहीं किया गया है।
ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर नागहस्ती और नोगेन्द्र ये दोनों भिन्न-भिन्न काल के दो भिन्न प्राचार्य प्रमाणित होते हैं। प्रार्य मंगू और आर्य नागहस्ती ये दोनों पर्याप्त अंशों में समकालीन होने चाहिये । पर नागेन्द्र को नागहस्ती मान लेने पर किसी भी दशा में संगति नहीं बैठती। क्योंकि आर्य नागेन्द्र का जन्म वी. नि. सं. ५७३ में होने का उल्लेख उपलब्ध होता है जब कि आर्य मंगू का प्राचार्यकाल ४७० माना गया है ।
वाचनाचार्य प्रार्य नागहस्ती और युगप्रधानाचार्य प्रार्य नागहस्ती (नागेन्द्र) ये दोनों भिन्न-भिन्न काल में हुए दो भिन्न आचार्य हैं। इस तथ्य को सिद्ध करने वाले सर्वाधिक सबल शास्त्रीय प्रमाण, अनुयोगद्वार सूत्र के पाठ का वाचनाचार्य आर्य नागहस्ती के प्रकरण में उल्लेख किया जा चुका है।
१६. प्राचार्य सामन्तमद्रनारणाचार्य वीर नि० सं० ६४३ में आर्य चन्द्रसूरि के स्वर्गगमन के पश्चात् १६ वें गणाचार्य सामन्तभद्र हए। आपके जन्म, कुल आदि का परिचय उपलब्ध नहीं होता । आपका जो कुछ परिचय उपलब्ध होता है, उससे यह विदित होता है कि पाप पूर्वश्रुत के प्रम्यासी होते हुए भी अस्खलित चारित्र को प्राराधना करने वाले थे। निर्मोह भाव से विचरण करते हुए ये संयमशुद्धि के लिये अधिकांशतः वनों, उद्यानों, यक्षायतनों, एवं शून्य देवालयों में ही ठहरा करते थे। इनके उत्कट वैराग्य और वनवास को देख कर लोग इन्हें वनवासी और इनके साधुसमुदाय को वनवासी-गच्छ कहने लगे। सौधर्मकाल के निग्रंथ गच्छ का यह चौथा नाम वनवासी गच्छ कहा जाता है। वनवासी शब्द सापेक्ष होने के कारण वसतिवास की स्मृति दिलाता है। भगवान् महावीर और सुधर्मा के समय तक साधुओं का प्रायिक निवास वन-प्रदेशों में ही होता था फिर भी उस समय के श्रमण वनवासी न कहला कर निग्रंथ नाम से ही पहिचाने जाते रहे। क्योंकि उनके सम्मुख वनवासी से भिन्न वसतिवासी नामक कोई भिन्न श्रमणवर्ग नहीं था। ' (क) इन्द्रचन्द्रनागेन्द्रवादी मिथ्यादृष्टिः । संशयवादी किलेवं मन्यते, सेयंबरो य ।
[बोषप्रामृत, गा० ५३ श्रुतसागरी टीका] (ख) इन्द्रकद्रनागेन्द्रगच्छोत्पन्नानां तंदुलकपायोदकादिसमाचारीसमाश्रयीणां श्वेतपटाना।
[भावप्राभृत, गा० १३५, अतसागरी] २ प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० ५५२ 3 विपुटी के अनुसार वीर नि० स० ६५० ।
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