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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ रा० एवं धार्मिक स्थिति
दक्षिणापथ का सातवाहन राजवंश, जिसके, विक्रमादित्य के समय से वीर नि० सं० ६६३ तक प्रक्षुण्ण राज्य चलने के अनेक उल्लेख जैन वाङ्मय में तथा अन्य इतिहास ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं ।
कतिपय सातवाहनवंशी राजाओं के जैन धर्मावलम्बी होने विषयक अनेक उल्लेख जैन साहित्य में विद्यमान हैं ।
महाराजा कनिष्क के समय में कुषारगवंशी विदेशी राजसत्ता बौद्ध धर्मावलम्बियों के साथ इतनी अधिक घुलमिल गई थी कि दोनों एक दूसरे के उत्कर्ष को अपना स्वयं का उत्कर्ष समझने लगे थे । इस घनिष्ठ सम्बन्ध के कारण कुषारणसाम्राज्य के उत्कर्ष में बौद्ध संघ का सर्वतोमुखी सहयोग और बौद्ध संघ में कनिष्क का वर्चस्व बढ़ता ही गया। बौद्ध और कुषारणों की इस प्रकार की घनिष्ठता जहाँ एक श्रोर बौद्धधर्म के तात्कालिक उत्कर्ष में बड़ी ही सहायक हुई, वहाँ दूसरी श्रोर वह बौद्धधर्म के लिए महान् अभिशाप सिद्ध हुई । विदेशी दासता से मुक्ति चाहने वाली समस्त भारतीय प्रजा के हृदय में कुषारणों के प्रति जो घृरणा थी, वह कुषारणों के शासन को सुदृढ़ बनाये रखने में सहायता प्रदान करने वाले बौद्ध संघों, बौद्धभिक्षुत्रों एवं बौद्ध धर्मावलम्बियों के प्रति भी उत्तरोत्तर बढ़ने लगी । भारत की स्वतन्त्रताप्रिय प्रजा बौद्ध संघ को राष्ट्रीयता के धरातल से च्युत, प्राध्यात्मिक स्वतन्त्रता से विहीन एवं प्राततायी का प्राणप्रिय पोष्य-पुत्र समझने लगी । भारतीय जनमानस में उत्पन्न हुई इस प्रकार की भावना अन्ततोगत्वा भारत में बौद्धधर्म के अपकर्ष ही नहीं अपितु सर्वनाश का कारण बनी ।
नाग भारशिव राजवंश का प्रभ्युदय
बौद्धों के सर्वतोमुखी सहयोग के बल पर बढ़ते हुए विदेशी दासता के उस उत्पीड़न ने भारशिव नामक नाग राजवंश को जन्म दिया । लकुलीश नामक एक परिव्राजक ने विदेशी दासता के जूड़े को उतार फेंकने के लिये लालायित भारतीय जनमानस में शिव के संहारक स्वरूप की उपासना के माध्यम से प्रारण फूंकने का अभियान प्रारम्भ किया। भारशिव नागों ने लकुलीश को शिव का अंशावतार मानकर उनके प्रत्येक प्रदेश का अक्षरशः पालन किया । कनिष्क की मृत्यु होते ही भारशिव नागवंश एक राजवंश के रूप में उदित हुआ । आगे चलकर इन भारशिवों ने कुषाण साम्राज्य का अन्त कर विशाल भारतीय साम्राज्य की स्थापना की। "
ऐतिहासिक तथ्यों के पर्यवेक्षरण से कनिष्क का गन्धार के सिंहासन पर श्रासीन होने का समय वीर नि० सं० ६०५ ( ई० सन् ७८) तथा मृत्यु का समय वीर नि० सं० ६३३ ( ई० सन् १०६ ) ठहरता है। तदनुसार भारशिव नागों के
Several Vakataka inscriptions mention Bhavanaga, sovereign of the dynasty known as the Bharsivas who were so powerful that they had to their credit the performance of as many as ten Asvamedha sacrifices following their conquests along the Bhagirathi (Ganges). [The Gupta Empire, by Radhakumud Mookerji, page 7] . 2 The Gupta Empire' by Radhakumud Mookerji, page 3-4.
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