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· जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [चत्यवास परन्तु जब चैत्यवास के रूप में गृहीजनों के निकट सम्पर्क में जैन श्रमणों का निवास प्रारम्भ हुमा तो यह सुनिश्चित था कि आसपास के भक्तजन प्रातः-सायं जितना भी अधिक हो, सेवाभक्ति का लाभ लेने लगें । भावूक भक्तों के बारम्बार गमनागमन और उनके द्वारा की गई उपासना से श्रमणवर्ग का मन भावविभोर हो उठा। परिणामतः मुनियों द्वारा अपने मलमलीन देह और धूलिधुसरित प्रावरणों की, भावुकजनों की प्रीति हेतु धुलाई-सफाई की जाने लगी। चैत्यवासजन्य जनसंसर्ग ने केवल इन सब प्रवृत्तियों को ही जन्म नहीं दिया अपितु इससे रागातिरेक के कारण मुनियों में स्थिरवास की प्रवृत्ति भी बढ़ने लगी। रागातिरेक से किसी एक स्थान पर स्थिरवास कर लेने पर साधनामय जीवन में कितनी विकृति आ सकती है, इसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती। चैत्यवास के कारण यही सब कुछ हुप्रा ।
" प्राचार्य हरिभद्र ने चैत्यवासजन्य तात्कालिक उन विकृतियों का अपने ग्रन्थ "संबोधप्रकरण' में एक मार्मिक चित्र प्रस्तुत किया है। उससे चैत्यवास के दुष्परिरणामों को भलीभांति समझा जा सकता है। प्राचार्य हरिभद्र के वे विचार इस प्रकार है :
___वे साधु लोच नहीं करते, प्रतिमा वहन करने में शर्माते, शरीर से मैल उतारते, पादुका-उपानत् आदि पहन कर घूमते और निष्कारण कटिवस्त्र धारण करते हैं।" यहाँ लोच नहीं करने वाले को प्राचार्य ने क्लीब - कायर कहा है।' उन्होंने आगे फिर लिखा है :
"ये कूसाधू चैत्यों और मठों में रहते हैं। पूजा करने का प्रारम्भ एवं देवद्रव्य का उपभोग करते हैं। ये कुसाधु जिन-मन्दिर और शालाएं चुनवाते, रंगबिरंग, सुगन्धित एवं धूपवासित वस्त्र पहनते, बिना नाथ के बलों की तरह स्त्रियों के आगे गाते, प्रायिकाओं द्वारा लाये गये पदार्थ खाते, तरह-तरह के उपकरण रखते, जल, फूल, फल आदि सचित्त द्रव्यों का उपभोग करते, दो तीन बार भोजन करते और ताम्बूल लवंगादि भी खाते हैं।"
"ये लोग मुहूर्त निकालते, निमित्त बताते और भभूति भी देते हैं। जीमनवार में मिष्टान्न ग्रहण करते, आहार के लिये खुशामद करते और पूछने पर भी सच्चा धर्म नहीं बताते हैं।"
"ये लोग स्नान करते, तेल लगाते, श्रृंगार करते और इत्र-फुलेल का भी उपयोग करते हैं। स्वयं भ्रष्ट होते हुए भी दूसरों की आलोचना करते हैं।"
___ इस प्रकार की विकृत स्थिति में भी जो लोग तीर्थंकरों का वेष समझ कर उन मुनियों को वन्दनादि करते हैं, उनके लिये भी प्राचार्य हरिभद्र ने बड़ी दर्दभरी भाषा में कहा है :
कीबो न कुणइ लोयं, लम्बइ पडिमाइ जस्समुबरणे । सोबाहणो य हिगड, बंधइ कम्पिट्टयमकज्जे ॥ [सम्बोध प्रकरण, गा० १४]
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