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‘प्रार्य चन्द्र-गणाचार्य] सामान्य पूर्वधर-काल : आर्य रेवती नक्षत्र
६२१ पश्चात् उसने भूख से छटपटाकर मरने के स्थान पर सकुटुम्ब विषमिश्रित भोजन कर एक साथ इहलीला समाप्त करने का निश्चय किया। विष मिलाने के लिये एक समय की भोजन-सामग्री जुटाना भी बड़ा कठिन कार्य था । श्रेष्ठी जिनदत्त ने एक लाख रुपये व्यय कर येन-केन-प्रकारेण एक समय की भोजन-सामग्री जुटाई।
जिस समय आर्य वज्रसेन श्रेष्ठी जिनदत्त के घर में भिक्षार्थ पहुंचे, उस समय श्रेष्ठिपत्नी ईश्वरी भोजन में विष मिलाने का उपक्रम कर रही थी। लक्ष रोप्यक मूल्य के भोजन में ग्रह-स्वामिनी को विष का मिश्रण करते देख आर्य वज्र सेन को उन्हें आर्य वज्र द्वारा कहा गया भविष्य कथन स्मरण हो पाया। उन्होंने शान्त एवं गम्भीर स्वर में गृहस्वामिनी ईश्वरी से कहा - "सुभिक्षं भावि सविषं, पाकं मा कुरु तद्वथा ।' श्राद्ध! अब दुष्काल का अन्त सन्निकट है। तुम भोजन में विष मत मिलायो। कल तक प्रचुर मात्रा में अन्न उपलब्ध होने लगेगा।"
'परोपकारैकव्रती महापुरुषों के वचन अन्यथा नहीं होते।' इस दृढ़ विश्वास के साथ श्रेष्ठिपत्नी ईश्वरी ने तत्काल प्रस्तुत भोजन मुनिराज को बहरा कर संतोषानुभव किया।
आर्य वज्रसेन के कथनानुसार दूसरे ही दिन धान्य से भरे पोत सोपारक नगर पहुंचे। भूख से पीड़ित दुष्कालग्रस्त निराश लोगों में जीवन की नवीन आशा का संचार हुआ । आवश्यकतानुसार सबको अन्न मिलने लगा । यह देखकर श्रेष्ठिपत्नी ईश्वरी बड़ी प्रसन्न हुई। उसने श्रेष्ठी जिनदत्त से कहा- "कल यदि मुनि ने हमें आश्वस्त नहीं किया होता तो आज हमारे परिवार का एक भी व्यक्ति संसार में दिखाई नहीं देता। हम सब के सब यमराज के अतिथि बन चुके होते। श्रमणश्रेष्ठ ने हम सब को जीवन-दान दिया है। ऐसी स्थिति में क्यों न हम सभी जिनधर्म की शरण ग्रहण कर अपने-अपने जीवन को सफल कर लें।"
श्रेष्ठिपत्नी ईश्वरी का परामर्श सब को रुचिकर लगा और श्रेष्ठिदम्पती ने अपने चारों पुत्रों चन्द्र, नागेन्द्र, निर्वृत्ति और विद्याधर के साथ समस्त वैभव का त्याग कर निर्ग्रन्थ श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली। चन्द्र, नागेन्द्र आदि चारों मुनियों ने विनयपूर्वक क्रमशः अंग शास्त्रों एवं पूर्वो को अध्ययन किया और वे चारों प्राचार्य पद के योग्य बने। 'प्रभावक चरित्र, प्रथम प्र., श्लो. १९१ २ एवं जाते च संध्याया, बहित्राणि समाययुः ।
प्रशष्य शष्यपूर्णानि, जलदेशान्तराध्वना ।।१६३।। प्रभावक च., वज ।। ३ सुभिक्षं तत्क्षणं जज्ञे, ततः सा सपरिच्छदा ।
अचिन्तयदहो मृत्यु, भविष्यदरी ततः ।। जीवितव्यफलं किं न, गृह्यते संयमग्रहात् । वज्रसेनमुनेः पार्वे, जैनबीजस्य सद्गुरोः ।। ध्यात्वेति सा सपुत्राहि, व्रतं जग्राह साग्रहं ।...... [जन साहित्य संशोधक, खंड २, अंक ४ में प्रकाशित विचार श्रेणि, परिशिष्ट, पृ.१०]
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