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दि० परम्परा में संघभेद] सामान्य पूर्वधर-काल : आर्य रेवती नक्षत्र
६१५ श्वेताम्बर परम्परा की तरह दिगम्बर परम्परा में भी शाखाओं और कुलों का काफी विस्तार फैला । श्वेताम्बर परम्परा की तरह दिगम्बर परम्परा के प्राचार्यों की ऋमिक पट्ट-परम्परा और आगमवाचना का स्पष्ट परिचय उपलब्ध नहीं होता। संभव है इस प्रकार का, ऋमिक पट्ट-परम्परा के लेखन का प्रयास ही नहीं हुमा हो।
यापनीय संघ वर्तमान समय में जैन समाज में श्वेताम्बर और दिगम्बर -ये दो सम्प्रदाय ही मुख्य रूप से प्रसिद्ध हैं पर पूर्व काल में 'यापनीय संघ' नामक एक तीसरा सम्प्रदाय भी भारतवर्ष में एक बड़े संघ के रूप में विद्यमान था। इस तथ्य को सिद्ध करने वाले अनेक पुष्ट प्रमाण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं। यापनीय संघ किस समय अस्तित्व में प्राया, इस संघ का आदि संस्थापक कौन था तथा इसका अस्तित्व किन परिस्थितियों में, किस समय उठ गया, इस विषय में पुष्ट प्रमारणों के अभाव के कारण निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। फिर भी यापनीय संघ के सम्बन्ध में यत्र-तत्र जो उल्लेख उपलब्ध होते हैं, उनके आधार पर इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि विक्रम की दूसरी शताब्दी से चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी तक 'यापनीय संघ' जैन धर्म के एक सम्प्रदाय के रूप में आर्यधरा पर विद्यमान रहा। यापनीय संघ के आपुलीय संघ और गोप्य संघ - इन दो और नामों का भी उल्लेख मिलता है। ___यापनीय संघ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जहां कतिपय श्वेताम्बर परम्परा के प्राचार्यों ने यह अभिमत व्यक्त किया है कि दिगम्बर सम्प्रदाय से यापनीय संघ की उत्पत्ति हुई, वहां 'भद्रबाहु चरित्र' के रचनाकार प्राचार्य रत्ननन्दी ने श्वेताम्बर सम्प्रदाय से इसकी उत्पत्ति होना बताया है। · श्वेताम्बर परम्परा के प्राचार्य मलधारी राजशेखर ने अपने ग्रन्थ 'षड्दर्शनसमुच्चय' में गोप्य संघ अर्थात यापनीय संघ को दिगम्बर परम्परा का एक भेद बताते हुए स्पष्ट शब्दों में लिखा है :
दिगम्बराणां चत्वारो, भेदा नाग्न्यव्रतस्पृशः ।
काष्ठासंघो मूलसंघः, संघो माथुरगोप्यको ॥२१ . प्राचार्य रत्ननंदी ने 'भद्रबाहु चरित्र' में उल्लेख किया है कि विक्रम संवत् १३६ (वीर नि.सं. ६०६) में सौराष्ट्र के वल्लभी नगर में श्वेताम्बरों की उत्पत्ति हुई' और कालान्तर में श्वेताम्बरों से करहाटाक्ष नगर में यापनीय संघ की उत्पत्ति हुई।
मृते विक्रम भूपाले, षट्त्रिंशदधिके शते । गतेऽब्दानामभूल्लोके, मतं श्वेताम्बराभिधम् ॥५५।। [भद्रबाहुचरित्र, रत्ननंदी, ४ परिच्छेद] २ तदातिवेलं भूपाद्य:, पूजिता मानिताच तः । घृतं दिग्वाससा रूपमाचारः सितवाससाम् ॥१५३।। गुरु शिक्षातिगं लिंगं, नटवद् भण्डिमास्पदम् । ततो यापनसंघोऽभूत्तेषां कापथवर्तिनाम् ॥१५४।।'
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