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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [दि० परम्परा में संघभेद दिगम्बर परम्परा के कतिपय मान्य ग्रन्थों में इस प्रकार के उल्लेख उपलब्ध होते हैं, जिनमें बताया गया है कि भिन्न-भिन्न समय में होने वाले अनेक संघों में से कतिपय संघों में शिथिलाचार व्याप्त हो गया प्रतः उन संघों की जैनाभासों में गणना की जाने लगी। प्राचार्य देवसेन ने इस प्रकार के पांच संघों की उत्पत्ति का उल्लेख किया है। उनके नाम इस प्रकार हैं :
१. द्राविड़ संघ, २. यापनीय संघ, ३. काष्ठा संघ, ४, माथुर संघ और ५. भिल्लक संघ ।
आचार्य नंदि ने अपने नीतिसार नामक ग्रन्थ में १. गोपुच्छक, २. श्वेताम्बर, ३. द्राविड़, ४. यापनीय, ५. निष्पिच्छिक -ये ५ जैनाभास बताये हैं।'
इनमें गोपुच्छक अर्थात् काष्ठा संघी और निष्पिच्छिक-माथर संघीये, दोनों देवसेन के अनुसार जैनाभासी कहे गये हैं। परन्तु प्रेमीजी के अनुसार इनका मूल संघ से अधिक पार्थक्य नहीं है, जिससे कि उनको जैनाभासी कहा जा सके।
सब संघों का परिचय दिया जाना कठिन होने के कारण यहाँ केवल उन्हीं संघों का उल्लेख किया जा रहा है, जिनकी कि शास्त्रीय उल्लेखों (दि. प. के ग्रन्थों) के आधार पर खोज हो सकती है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश के अनुसार उनके नाम इस प्रकार हैं:
१. अनन्तकीर्ति संघ, २. अपराजित संघ, ३. काष्ठा संघ, ४. गुणधर संघ, ५. गुप्त संघ, ६. गोपुच्छ संघ, ७. गोप्य संघ, ८. चन्द्र संघ, ६. द्राविड़ संघ १०. नंदी संघ, ११. नंदीतट संघ, १२. निष्पिच्छिक संघ, १३. पंचस्तूप संघ, १४. पुन्नाट संघ, १५. बागड़ संघ, १६. भद्र संघ, १७. भिल्लक संघ, १८. माघनन्दि संघ, १६. माथुर संघ, २०. यापनीय संघ, २१. लाडबागड़ संघ, २२. वीर संघ, २३. सिंह संघ, और २४. सेन संघ ।
दिगम्बर परम्परा के अनुसार मूल संघ में से ही उत्तरोत्तर अन्य सर्व संघों की उत्पत्ति मानी गई है। अतः मूल संघ को भिन्न न मान कर सामान्य दिगम्बर संघ का नाम ही बताया गया है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार भगवान् वीर के पश्चात् ३८३ वर्ष की प्रागम-प्रसिद्ध प्राचार्य परम्परा बताई गई है।
वीर नि० सं० ३८३ के पश्चात् ५६५ तक के प्राचार्यों का उल्लेख नहीं मिलता। ३८३ के पश्चात् ५६४ में संघ-विभाजन किस प्रकार हुमा और आगे की प्राचार्य परम्परा किस रूप में चली, इसे बताने के लिए एक काल्पनिक वृक्ष बना कर बताया गया है। उसमें सर्व प्रथम वीर नि० की छठी सातवीं शताब्दी के प्राचार्य माघनन्दी, धरसेन और गुणधर के नाम दिये गये हैं। इनका काल वीर नि० सं० ५६५ से ६७३ तक का माना गया है।
माचार्य महंदबलि ने वीर नि० सं० ५६३ में मूल संघ से जिन संघों का विभाजन किया, उनके अतिरिक्त भी उत्तर काल में कई संघ प्रकट हुए पोर ' योपुग्छक: श्वेतवासा, द्रविणे, यापनीय निष्पिच्छश्चेति पंच जैनामासाः। [नीतिसार]
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