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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [जन शासन में सं० भेद तथा रामिल्ल, स्थलाचार्य और स्थूलभद्र अपने-अपने साधुसंघ के साथ सिन्धु प्रदेश की ओर गये । रामिल्ल आदि को भयंकर दुष्काल का सामना करना पड़ा। वे श्रद्धालु श्रावकों के भाग्रह से भिखारियों के संकट से बचने के लिए वहां रात्रि में भिक्षा लेने जाते मोर उसे दिन में खा लिया करते थे। श्रावकों की प्रार्थना से वे बांयें स्कन्ध पर एक वस्त्र भी रखने लगे। दुष्काल के पश्चात् दोनों ओर के श्रमरणसंघों का मध्यप्रदेश में पुनः मिलन हुम्रा । उस समय रामिल्ल, स्थूलाचार्य और स्थूलभद्र ने तो भवभ्रमण के भय से त्रस्त हो वस्त्र का त्याग कर निर्ग्रन्थ रूप धारण कर लिया।' पर कुछ साधु जो कष्ट सहने से घबराते थे, उन्होंने जिनकल्प और स्थविरकल्प की कल्पना कर निर्ग्रन्थ परम्परा से विपरीत स्थविर कल्प को प्रचलित किया । इसमें यह नहीं बताया गया है कि स्थूलाचार्य आदि प्राचार्यों में से किस प्राचार्य के किस शिष्य से श्वेताम्बर मत की उत्पत्ति हुई। - रत्ननन्दी ने अपने “भद्रबाहु चरित्र" में अर्द्धफालक मत से श्वेताम्बर उत की उत्पत्ति बताई है। उनके अनुसार वल्लभीपुर के महाराज लोकपाल ने महारानी चन्द्रलेखा की प्रार्थना पर उज्जयिनी में विराजमान उसके गुरू जिनचन्द्र को वल्लभी बुलवाया। जिनचन्द्र के शरीर पर मात्र एक वस्त्र देख कर वल्लभी नरेश असमंजस में पड़ गया और उन्हें बिना वन्दन-नमन किये ही अपने राजप्रासाद की ओर लौट गया। तब रानी ने अपने पति के भावों को समझ कर जिनचन्द्र मुनि के पास वस्त्र भेज कर उन्हें वस्त्र धारण करने की प्रार्थना की। साधुनों द्वारा वस्त्रधारण की बात सुन कर राजा ने भक्तिसहित उनका पूजन किया। उसी दिन से श्वेत वस्त्र धारण करने के कारण अर्द्धफालक मत श्वेताम्बर मत के नाम से प्रसिद्ध हुआ और यह श्वेताम्बर मत विक्रम नृपति की मृत्यु से १३६ वर्ष पश्चात् प्रचलित हुप्रा।' ' रामिल्लः स्थविरः स्थूलभद्राचार्यस्त्रयोऽप्यमी।
महावैराग्य सम्पन्ना, विशाखाचार्यमाययुः ।।६।। स्यक्त वादकपटं सद्यः, संसारात्त्रस्तमानसाः । नग्रंन्थ्यं हि तपः कृत्वा मुनिरूपं दधुस्त्रयः ॥६६।।
[वृहत्कथाकोष, कथानक १३१, पृ. ३१८, ३१६] ३ इष्टं न यगुरोर्वाक्यं, संसारागवतारकम् । जिनस्थविरकल्पं च, विधाय द्विविधं भुवि ॥६॥ प्रद फालकसंयुक्तमझातपरमार्थकः । तैरिदं कल्पितं तीर्थ, कातर शक्तिवजितः ॥१८॥ धृतानि श्वेतवासांसि, तहिनासमजायत । श्वेतांबरमतं ख्यातं, ततोऽळफालकमतात ॥५४॥ मते विक्रमभूपाले, षट्त्रिंशदषिके हते। गतेदानामभूल्लोके, मतं श्वेताम्बराभिषम् ॥५॥
गवाह परिस, (warsion
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