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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [जैन शासन में सं० भेद कम से कम रजोहरण और मुखवस्त्रिका-ये दो उपकरण रखते हैं। इस तरह ३ से लेकर १२ उपधि तक के अन्य ७ विकल्प बताये गये हैं। ___इस प्रकार जिनकल्प का वर्णन सुन कर शिवभूति ने कहा - "यदि ऐसा है तो प्राज प्रोधिक और प्रोपग्रहिक के नाम से इतने उपकरण क्यों रखे जाते हैं ?"
प्राचार्य ने कहा- "जम्बूस्वामी के निर्वाणानन्तर संहनन की मन्दता से जिनकल्प परम्परा विच्छिन्न मानी गई है।" -
शिवभूति अपने रत्नकम्बल के हरण से खिन्न तो था ही, उसने कहा"महाराज! मेरे जीते जी जिनकल्प का विच्छेद नहीं होगा। परलोकार्थी को भय-मूर्या और कषाय बढ़ाने वाले संपूर्ण परिग्रह से दूर ही रहना चाहिये।"
गुरू ने कहा - "वत्स! वस्त्र आदि उपकरण एकान्ततः कषायवृद्धि के कारण नहीं है। शरीर की तरह ये वस्त्र आदि उपकरण धर्म में सहायक भी होते हैं। जिस प्रकार धर्म-साधन के लिए ममता-
मूर्छा रहित होकर शरीर धारण किया जाता है, उसी प्रकार वस्त्र आदि आवश्यक उपकरण भी धर्म-साधन की भावना से रखना अनुचित नहीं है। बिना किसी प्रकार की ममता-मूर्छा के इन्हें केवल साध्य की सिद्धि के लिए उपकरण मात्र समझ कर रखना चाहिये ।”
इस प्रकार प्राचार्य ने उसे प्रमाणपुरस्सर अनेक युक्तियों से समझाया पर शिवभूति अपने प्राग्रह पर डटा रहा और उसने वस्त्रादि सभी उपकरणों का परित्याग कर नग्नत्व स्वीकार कर लिया। वह अपने गुरू और साधु परिवार से मनग नगर के बाहर एक उद्यान में रहने लगा! शिवभूति की उत्तरा नाम की एक पहिन भी अपने भाई का अनुगमन कर दीक्षित हो गई। पर उसने फिर वस्त्र धारण कर लिया।
इस प्रकार शिवभूति, जिनको सहस्रमल्ल भी कहते हैं, उनसे श्वेताम्बर परम्परानुसार दिगम्बर मत की उत्पत्ति मानी गई है। शिवभूति के कोण्डिन्य पौर कोट्टवीर नामक दो शिष्य हुए और इस प्रकार शिवभूति से वोटिक मत की परम्परा चली।
श्वेताम्बर परम्परा के सभी ग्रंथों में प्रायः ऐसा ही मिलता-जुलता उल्लेख है। श्वेताम्बर परम्परा में जिस प्रकार वीर नि० सं० ६०६ में दिगम्बर मत की उत्पत्ति बताई गई है, उसी प्रकार दिगम्बर परम्परा में वीर नि० सं०६०६ में सेवरसंघ-श्वेतपट संघ (श्वेताम्बर संघ) की उत्पत्ति की बात कही गई है। ' (क) रहबीरपुरं नगरं, दीवगमुजाणमज्जकण्हे य ।
सिवभूइस्सुबहिम्मि, पुच्छा थेराण कहणा य ।।२५५१।। गोरिय सिवभूईमो, बोरियलिंगस्स होइ उप्पत्ति। कोरिष-कोट्टवीरा, परम्पराफासमुप्पना ।।२५५१।।
[विशेषावश्यक भाष्य, वृ० वृ०, पृ० १०२०] (0) पापक पूणि-उपोदनात नियुक्ति, पृ. ४२७-२८
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