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जैन शासन में सं० भेद] सामान्य पूर्वघर-काल : प्रार्य रेवती नक्षत्र
इस सम्प्रदायभेद के उत्पन्न होने की घटना का जो उल्लेख विशेषावश्यक भाष्य, आवश्यक चूरिण प्रादि ग्रंथों में उपलब्ध होता है, उसका सारांश इस प्रकार है :
.. एक वार रथवीरपुर के दीप नामक उद्यान में प्राचार्य कृष्ण का प्रागमन हुप्रा। वहां शिवभूति नाम का एक राजपुरोहित रहता था। राजा का कृपापात्र होने के कारण वह नगर में विविध भोग-विलासों का उपभोग करता हुमा यथेप्सित रूप से घूमता रहता और मध्यरात्रि के पश्चात् अपने घर पहुँचता था। . एक दिन शिवभूति की पत्नी ने अपना वह दुःख अपनी सास को सुनाते हुए कहा - "आपके पुत्र रात्रि में कभी समय पर नहीं पाते, सदा अर्द्धरात्रि के पश्चात् आते हैं, अतः मैं भूख और जागरण के दुःख से बड़ी दुःखित है।" सास ने वधू को आश्वस्त किया और दूसरे दिन वधू को सुला कर स्वयं वृद्धा ने जागरण किया। मध्यरात्रि के पश्चात् जब शिवभूति ने प्राकर घर का द्वार खटखटाया तो उसकी वृद्धा माता ने क्रुद्ध स्वर में डांटते हुए कहा- "जहां इस समय द्वार खुले रहते हों, वहीं चले जानो। यहां तेरे पीछे कोई मरने वाला नहीं है।"
इस प्रकार अपनी बुढ़िया मां से फटकार सुन कर शिवभूति अहंकारवश तत्क्षण लौट पड़ा। नगर में घूमते हुए जब उसने उपाश्रय का द्वार खुला देखा तो उसमें चला गया और दूसरे दिन प्राचार्य कृष्ण के पास दीक्षित होकर उनके साथ विभिन्न क्षेत्रों में विचरण करने लंगा।
___कालान्तर में प्राचार्य कृष्ण अपने शिष्यमण्डल सहित पुनः रथवीरपुर आये। उस समय वहां के राजा ने पूर्वप्रीति के कारण शिवभूति मुनि को एक बहुमूल्य रत्नकम्बल भेंटस्वरूप प्रदान किया।
प्राचार्य को ज्ञात होने पर उन्होंने कहा - "साधु को इस प्रकार का मूल्यवान् वस्त्र रखना उचित नहीं।" .
गुरू द्वारा बहुमूल्य वस्त्र अपने पास न रखने का निर्देश प्राप्त होने के उपरान्त भी शिवभूति ने ममत्ववश उस वस्त्र का परित्याग नहीं किया और उसे सावधानी के साथ गठरी में बांधकर रख लिया।
एक दिन अवसर देख कर आचार्य ने उस रत्नकम्बल के खण्ड-खण्ड कर उन्हें साधुनों में वितरित कर दिया। जब शिवभूति को यह विदित हुमा, तो उसे बड़ा दुःख हुआ। इस घटना के पश्चात् शिवभूति अपने अन्तर में प्राचार्य के प्रति कलुषित भाव रखने लगा। ... एक समय आचार्य कृष्ण अपने शिष्य-समूह के समक्ष जिनकल्पपारी .साधुओं के प्राचार का वर्णन कर रहे थे। उन्होंने कहा- "जिनकल्पिक २ प्रकार के होते हैं, पाणिपात्र और पात्रधारी। उनमें से प्रत्येक के सवस्त्र और निर्वस्त्रये दो भेद होते हैं । उपधि की अपेक्षा जिनकल्प में ८ विकल्प होते हैं। जिनकल्पी
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