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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग यापनीय संघ दिगम्बराचार्य देवसेन ने 'दर्शनसार' नाम की अपनी छोटी-सी पुस्तक में श्रीकलश नामक श्वेताम्बर आचार्य से विक्रम सं० २०५ में यापनीय संघ की उत्पत्ति होने का उल्लेख इस प्रकार किया है :
कल्लाणे वरणयरे, दुण्णिसए पंच उत्तरे जादे ।
जावरिणय संघ भावो, सिरिकलसादो हु सेवड़दो ।।२६।। ऐसा प्रतीत होता है कि जिस समय जैन श्रमणसंघ श्वेताम्बर और दिगम्बर रूप में विभक्त हुआ, लगभग उसी समय में यापनीय संघ का भी मध्यममार्गावलम्बीसमन्वयवादी परम्परा के रूप में प्रादुर्भाव हुआ हो। दिगम्बर परम्परा की मान्यतानुसार श्वेताम्बर दिगम्बर भेद के ६६ वर्ष पश्चात् यापनीय संघ की उत्पत्ति मानी गई है। स्व. श्री नाथूराम 'प्रेमी' ने तीनों परम्पराओं की एक ही समय में उत्पत्ति होने की संभावना प्रकट करते हुए अपने ग्रन्थ- 'जैन साहित्य और इतिहास' में लिखा है-"यदि मोटे तौर पर यह कहा जाय कि ये तीनों ही सम्प्रदाय लगभग एक ही समय के हैं, तो कुछ बड़ा दोष न होगा। विशेष कर इसलिए कि संप्रदायों की उत्पत्ति की जो तिथियां बताई जाती हैं, वे बहुत सही नहीं हुआ करतीं।""
यापनीय शब्द के अर्थ सम्बन्धी सभी पहलुओं पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर भी इस प्रश्न का कोई संतोषप्रद संगत उत्तर नहीं मिलता कि इस संघ का नाम 'यापनीय संघ' किस अभिप्राय से रखा गया। इस सम्बन्ध में पन्यास श्री कल्याणविजयजी का अभिमत ही तर्कसंगत प्रतीत होता है। मुनिश्री ने अपने ग्रन्थ 'पट्टावली पराग संग्रह में लिखा है कि जिस प्रकार मरुधरा के यति परस्पर मिलते एवं विछूड़ते समय 'मत्थएण वंदामि' कहकर एक-दूसरे का अभिवादन करते थे, इस कारण यतिसमूह का नाम ही जनसाधारण द्वारा 'मत्थे।' रख दिया गया तथा वर्ष में एक बार लुंचन करने वाले साधु समुदाय का-कूचिक की तरह उनकी बढ़ी हुई दाढ़ी-मूछ देखकर कूचिक नाम रख दिया गया, ठीक उसी प्रकार यापनीयों द्वारा गुरुवन्दन के समय 'जावरिणज्जाए' शब्द का कुछ उच्च स्वर में प्रयोग किये जाने के फलस्वरूप संभवतः जनसाधारण ने उस साधुसमूह. का नाम यापनीय रख दिया हो।
यद्यपि आज भारतवर्ष में यापनीय संघ का कहीं अस्तित्व नहीं है और न इस संघ का कोई अनुयायी ही है, तथापि उपलब्ध अनेक उल्लेखों से यह सिद्ध होता है कि भारत में लगभग बारह सौ-तेरह सौ वर्षों तक एक प्रमुख धर्म-संघ के रूप में रहे हुए यापनीय संघ का सर्वांगपूर्ण साहित्य विद्यमान था। प्राचार्य हरिभद्र ने अपने ग्रन्थ 'ललित विस्तरा' में यापनीयतन्त्र का उल्लेख किया है, इससे भी इस तथ्य की पुष्टि होती है कि यापनीयों का अपना समृद्ध साहित्य किसी समय यहां विद्यमान था।
' जन साहित्य और इतिहास, पृ० ५६ ।
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