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जैन शासन में सं० भेद] सामान्य पूर्वधर-काल : मार्य रेवती नक्षत्र
६१३ दिगम्बर परम्परा के. ग्रन्थों भावसंग्रह, वृहत्कथाकोष और रत्ननन्दी के भद्रबाहु चरित्र - इन तीनों में भिन्न-भिन्न प्रकार से श्वेताम्बर मत की उत्पत्ति का उल्लेख उपलब्ध होता है।
श्वेताम्बर परम्परा में बोटिक मत (दिगम्बर मत) की उत्पत्ति के वर्णन में विशेषावश्यक भाष्य, आवश्यक चूरिण और स्थानांग आदि में मूल घटना की पूर्णरूपेण समानता और वैषम्यरहित मनःस्थिति का परिचय मिलता है, जबकि दिगम्बर परम्परा के ग्रंथों में विविधरूपता व विषम मनस्थिति की प्रतिध्वनि प्रकट होती है।
दोनों परम्पराओं के ग्रंथों के एतद्विषयक उल्लेखों से इतना तो स्पष्ट है कि वीर नि० सं० ६०६ अथवा ६०९ के लगभग श्वेताम्बर-दिगम्बर का सम्प्रदायभेद प्रकट हुआ'
दिगम्बर परम्परा में संघमेद श्वेताम्बर परम्परा में चन्द्र, नागेन्द्र, निर्वृत्ति और विद्याधर - ये चार शाखाएं और विविध कुल प्रकट हुए। इसी प्रकार. दिगम्बर परम्परा में भी काष्ठा संघ, मूल संघ, माथुर संघ और गोप्य संघ आदि अनेक संघ तथा नन्दीगण, बलात्कार गण एवं शाखाओं के उत्पन्न होने का उल्लेख मिलता है। उसका संक्षिप्त परिचय यहाँ दिया जा रहा है।
दिगम्बर परम्परा के साहित्यकारों का ऐसा मंतव्य है कि भगवान् महावीर के निर्वाणानन्तर प्राचार्य अर्हबलि तक मूलसंघ अविच्छिन्न रूप से चलता रहा। परन्तु वीर नि० सं० ५६३ में जब प्राचार्य अर्हबलि ने पंचवर्षीय युग प्रतिक्रमण के अवसर पर महिमा नगर में एकत्रित किये गये महान् यति - सम्मेलन में प्राचार्यों एवं साधुओं में अपने २ शिष्यों के प्रति कुछ पक्षपात देखा तो उन्होंने मूल संघ को अनेक भागों में विभाजित कर दिया। तत्पश्चात् मूलसंघ के वे सब भाग स्वतंत्र रूप से अपना-अपना पृथक् अस्तित्व रखने लगे। उन्होंने उस समय जिन संघों का निर्माण किया, उनमें से कतिपय के नाम इस प्रकार हैं :१. नन्दिसंघ
६. भद्र संघ २. वीर संघ
७. गुरगधर संघ ३. अपराजित संघ. ८. गुप्त संघ ४. पंचस्तूप संघ ६. सिंह संघ ५. सेन संघ
१०. चंद्र संघ इत्यादि 'यही समय भार्य रक्षित का भी है।
[सम्पादक] २ यह सम्मेलन मुख्य रूप से किस उद्देश्य को लेकर किया गया, इस सम्बन्ध में कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता
[सम्पादक] २ धवला, भाग १, प्र. १४ ।
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