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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग (शालि. शाक-संवत्सर शब्द का अर्थ शक्ति सामर्थ्य, ऊर्जा तथा वर्ष - विशेषतः शालिवाहन संवत्सर किया गया है।'
जैन कालगणना में वीर निर्वाण संवत् के पश्चात् सर्वाधिक महत्व शालिवाहन शाक-संवत्सर को दिया गया है।
जैन शासन में सम्प्रदाय मेव .. आर्य सुधर्मा से लेकर आर्य वज्र स्वामी तक जैन शासन विना किसी सम्प्रदाय - भेद के चलता रहा। यद्यपि गणभेद और शाखाभेद का प्रारम्भ प्राचार्य यशोभद्र के समय से ही प्रारम्भ हो गया था और आर्य सुहस्ती के समय से तो गरणभेद परम्पराभेद के रूप में भी परिणत हो गया था पर तब भी उसमें सम्प्रदाय भेद का स्थूल रूप दृष्टिगोचर नहीं हो पाया। समस्त जनसंघ श्वेताम्बर-दिगम्बर प्रादि बिना किसी भेद के "निग्रंथ" नाम से ही पहिचाना जाता रहा । आवश्यकतानसार वस्त्र रखने वाले और जिनकल्प की तुलना करने वाले- दोनों ही वीतराग भाव की साधना को लक्ष्य में रख कर परस्पर विना टकराये चलते रहे।
एक प्रोर महागिरि जैसे प्राचार्य जिनकल्प तुल्य साधना करने की भावना से एकान्तदास को अपनाते तो दूसरी ओर प्रार्य सुहस्ती भव्यजनों को प्रतिबोध देने एवं जिनशासन का प्रचार-प्रसार करने की भावना से प्रेरित हो ग्राम-नगरादि में भव्य भक्तजनों के साथ संम्पर्क बनाये रख कर विचरण करते। फिर भी उन दोनों का परस्पर प्रेम सम्बन्ध रहा। उस समय तक वस्तुतः वस्त्रधारी मुनि भोर वस्त्ररहित मुनि समान रूप से सम्माननीय, वन्दनीय और मुक्ति के अधिकारी माने जाते रहे। मुनित्व और मुक्तिपथ के लिए न सवस्त्रता बाधक समझी जाती थी और न निर्वस्त्रता ही एकान्त मूक्ति-सहायिका। वस्त्रधारी मुनियों का यह प्राग्रह न था कि बिना धर्मोपकारणों के मुक्ति नहीं और न निर्वस्त्र मुनियों का ही यह प्राग्रह था कि वस्त्र रखने वाला मुनि, मनि नहीं। थोड़े से में कहा जाय तो उस समय तक सवस्त्रता और निर्वस्त्रता मुनि की महानता अथवा लघुता का मापदण्ड नहीं बन पाई थी। ज्ञान, दर्शन चारित्र की सम्यक् अाराधना ही वस्तुतः मुनिता का सही मापदण्ड माना गया है।
किन्तु वीर नि० सं० ६०६ में वह स्थिति समाप्त हो गई और श्वेताम्बर तथा दिगम्बर के नाम से जैन शासन में सम्प्रदायभेद स्पष्ट रूप से प्रकट हो गया।
जिनभद्रगरणी क्षमाश्रमण ने कहा है - "वीर निर्धारण से ६०६ वर्ष बीतने पर रथवीरपुर में बोटिक मत (दिगम्बर मत) की उत्पत्ति हुई।"3. 1" संस्कृत हिन्दीकोश, वामन शिवराम प्राप्टे । . पञ्चयत्थं च लोगस्स, नाणाविहविगप्पणं ।
जतत्थं गहणत्थं च, लोगे लिग पयोयणं ।।३२।। नाणं च दंसरणं चेव, चरितं चेव निच्छए ।।३३।। [उत्तराध्ययन, प्र. २३ ] खम्वास सयाई, तइया सिद्धि गयस्स वीरस्स । तो बोडियाण दिठ्ठी, रहवीरपुरे समुप्पण्णा ॥२५५०।।
[वि० भाष्य]
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