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शालिवाहन शाक-संवत्सर] सामान्य पूर्वधर-काल : पार्य रेवती नक्षत्र
६०५ सातवाहनवंशीय उपरिलिखित १६ राजामों में से इस वंश का आदिपुरुष शिशुक-सिन्धुक अथवा सिमुक अवन्तीपति महाराज विक्रमादित्य के निधन के कुछ वर्ष पश्चात् युवावस्था में ही मृत्यु को प्राप्त हुआ और उसका छोटा भाई कृष्ण प्रतिष्ठान का राजा बना। कृष्ण की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र सातकर्णि बड़ा ही प्रतापी राजा प्रा। सातकरिण ने अपने राज्य की सीमा में उल्लेखनीय अभिवृद्धि की। महाराष्ट्र के किसी बड़े जागीरदार की पुत्री नायनिका के साथ इसका विवाह सम्पन्न हुप्रा इससे इसकी शक्ति में अभिवृद्धि हुई। सातकणि ने पश्चिमी घाट एवं कोंकरण पर विजय प्राप्त की तथा वह पूरे महाराष्ट्र और कर्नाटक का अधिपति बन गया। सातकरिण की तेजस्विता और प्रताप के कारण इसके पश्चाद्वर्ती सातवाहनवंश के सभी राजानों के नाम के साथ सातकरिण उपनाम भी जुड़ता रहा। कतिपय इतिहासविदों की मान्यता है कि सातवाहनवंश के संस्थापक सिमुक और कृष्ण बाल्यकाल में मान्ध्र देश में रहे थे प्रतः इनकी प्रान्ध्र सातवाहन नाम से प्रसिद्धि हुई। हमारा अभिमत है कि आन्ध्र के किसी नागवंशी राजा की संतति होने के कारण ही सातवाहनवंशी राजाओं को प्रान्ध्रसातवाहन कहा जाने लगा।
यह पहले बताया जा चुका है कि ईसा से लगभग दो शताब्दी पूर्व शक लोग अपने मूल निवासस्थान को छोड़ ईरान की ओर बढ़े और उन्होंने सम्पूर्ण ईरान पर आधिपत्य जमा लिया। शक लोग युद्ध प्रिय और बर्बर थे। वे जब कभी
राजा च गौतमीपुत्र एकविंशत्समा नषु । एकोनविंशति राजा यज्ञश्री: सातकर्यच ।। ३५५ ।। इत्येते वै नृपास्त्रिंशदन्ध्रा भोक्ष्यन्ति ये महीम् ।। ३५७ ।।
[वायुपुराण, अनुषंगपाद, प्र. ६६] वायुपुराण के उपरोक्त अध्याय में सातवाहनवंशीय पन्द्रह-सोलह राजामों के ही नाम दिये गये हैं पर इनकी संख्या ३० बताई गई है.। मत्स्यपुराण के उपरि उन त श्लोक में सातवाहनवंशी राजाओं की संख्या १६ बताई गई है। ब्रह्माण्ड पुराण में भी इन राजाओं की संख्या १६ ही बताई गई है। ऐसा प्रतीत होता है कि सातवाहन वंश की दक्षिण कोशल शाखा में हुए ११ राजामों को भी इन १९ राजामों के साथ गणना कर के ३० की संख्या पूरी कर दी गई है। विभिन्न पुराणों में दी गई सांतवाहनवंशी राजामों की नामावली को देखने से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि इनके नाम भी उत्तराधिकार के अनुक्रम से नहीं दिये गये हैं।
[सम्पादक] 'तत्र चंकदा दो वैदेशिकतिजो समागत्य विषवया स्वम्रा साकं कस्यचित्कुंभकारस्य शालायां तस्थिवांसी ।....प्रन्येयुः सा तयोविप्रयोः स्वसा जलाहरणाय गोदावरी गता। तस्याश्च रूपमप्रतिस्पं निरूप्य स्मरपरवशोन्तहदवासी शेषो नाम नागराजो हदान्निगंत्य विहितमनुष्यवपुस्तया सह बलादपि सम्भोगकेलिमकलयत् । भवितव्यताविलसितेन तस्या सप्तधातुरहितस्यापि तस्य दिव्यशक्त्या शुक्रपुद्गलसंचारात् गर्भाधानमभवत् । स्वनामधेयं प्रकाश्य व्यसनसंकटे मां स्मरेरित्यभिधाय च नागराजः पाताललोकमगमत् । सा च गृहं प्रत्यगच्छत् ।
[प्रबन्धकोश, सातवाहनप्रबन्ध, पृ. ६६)
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