________________
६०० - जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [सातवां निह्नव गोष्ठामाहिल दुर्बलिकापुष्यमित्र में उंडैल चुका हूं। जिस प्रकार पूरी तरह उंडेल दिये जाने पर भी तेल के घडे तथा घी के घडे में थोडी मात्रा में तेल और उससे अधिक मात्रा में घत अवशिष्ट रह जाता है, उसी प्रकार शेष शिष्य मेरे सम्पूर्ण ज्ञान को ग्रहण नहीं कर सके हैं।"
आर्य रक्षित के इस संक्षिप्त किन्तु सारगभित एवं युक्तियुक्त निर्णय से उत्तराधिकार का प्रश्न तत्क्षरण हल हो गया। शिष्यसमूह सहित समस्त संघ ने सर्वसम्मति से दूर्बलिकापुष्यमित्र को प्रार्यरक्षित का उत्तराधिकारी स्वीकार किया। प्रार्य रक्षित ने नवनिर्वाचित प्राचार्य दुर्बलिकापुष्यमित्र और संघ को संघ-संचालन विषयक निर्देश दिये। तदनन्तर अध्यात्म-ध्यान में लीन हो आर्य रक्षित ने समाधिपूर्वक स्वर्गारोहण किया।
प्रार्य रक्षित के स्वर्गारोहण के समाचार सुनकर गोष्ठामाहिल भी चातुर्मास की समाप्ति के पश्चात् साधुसंघ के पास आये और प्रार्य दुर्बलिकापुष्यमित्र के गणाचार्य पद पर नियुक्त किये जाने की बात सुनकर बड़े खिन्न हुए।' श्रमरणसंघ एवं श्रावकसंघ द्वारा उन्हें समझाने का पूरा प्रयास किया गया पर गोष्ठामाहिल ने किसी की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया और वे सब साधुनों से पृथक् एक अन्य ही उपाश्रय में ठहर कर सूत्र-पौरुषी के समय एकाकी स्वाध्याय करने लगे। अर्थ-पौरुषी के समय जब गणाचार्य प्रार्य दुबंलिकापुष्यमित्र साधुसमूह को आगमवाचना देते, उस समय भी गोष्ठामाहिल उपस्थित नहीं होते । वे मन ही मन गणाचार्य के प्रति विद्वेष रखने लगे। गणाचार्य द्वारा की जाने वाली वाचना के अनन्तर मुनि विन्ध जब अर्थवाचना करते, तब गोष्ठामाहिल वहां उपस्थित होते और आठवें पूर्व की व्याख्या सुनते। __अपने अन्तर में उत्पन्न हुए गणाचार्य के प्रति विद्वेष और कांक्षामोह के उदय के कारण वे आठवें पूर्व के भावों को यथार्थरूपेण ग्रहण न कर उनका विपरीत अर्थ ही ग्रहण करने लगे। . .
आठवें कर्मप्रवादपूर्व की वाचना के समय प्रार्य विन्द्य ने कर्मबन्ध के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा :- "मात्मा के साथ कर्म का बन्ध तीन प्रकार का होता है - बद्ध, स्पृष्ट और निकाचित । जीव प्रदेशों के साथ कर्म-परमारणों के सम्बन्ध मात्र को बद्ध कहते हैं। जैसे कषायरहित जीव के ईपिथिक कर्म का बन्ध सूखी दीवार पर गिराई गई चूर्ण की मुष्टि के समान कालान्तर में बिना स्थिति पाये ही अलग हो जाता है। दूसरा बद्ध-स्पृष्ट - जो कर्म गीली दीवार पर गिराये गये स्नेहयुक्त चूरणं की तरह कुछ काल तक प्रात्मप्रदेशों के साथ मिला रहकर अलग हो जाता है, उसे बद्धस्पृष्ट कहा गया है। तीसरा निकाचित कर्म- वही बद्ध - स्पृष्ट कर्म जब अध्यवसायों और रस की अति तीव्रता के कारण न्यूनाधिक्य के रूप में एवं विहियपुहुत्तेहिं रखियज्जेहिं पूसमितम्मि। ठविए गम्मि किर गोट्ठमाहिलो परिनिवेसेणं ।।२२६६ [विशेषावश्यक भाष्य]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org